नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 12 मार्च 2023

2060 में दुनिया में सबसे ज्यादा होगी भारत की आबादी

 वर्ष 2020 के मध्य तक भारत जनसंख्या के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा ऐसा अनुमान है। वर्ष 2060 में भारत की जनसंख्या 1.65 अरब होने का आकलन भी किया गया है और इस शिखर तक पहुंचने के बाद संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि भारत की जनसंख्या में गिरावट आने लगेगी। 

कई रिपोट्‌र्स 2050 तकभारत की जनसंख्या के स्थिर होने और 2060 के बाद उसमें गिरावट का अनुमान लगा रहा है।  भारत की जनसंख्या वृद्धि दर बीते कुछ दशकों में कम हुई है मगर जितनी अधिक जनसंख्या भारत में है वह अभी भी दुनिया के कई देशों की तुलना में ज्यादा है। 

अनुमान है कि भारत 2050 तक दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा।  जनसंख्या पर नियंत्रण भी पाया जून 2019 में जारी संयुक्त राष्ट्र के 'वर्ल्ड पापुलेशन प्रॉस्पैक्ट्‌स 2019' के अनुसार एक दशक से भी कम समय में भारत चीन को पीछे छोड़ देगा, किंतु जबसे संयुक्त राष्ट्र ने यह जनसंख्या संबंधी अनुमान लगाना शुरू किया है तबसे अब तक 2011 में भारत की जनसंख्या वृद्धि दर सबसे कम रही है। 

2001 से 2011 तक तक भारत की जनसंख्या दर में गिरावट आई है। 1991 से 2001 तक यह 21.5 प्रतिशत रही थी तो 2001 से 2011 तक 17.7 प्रतिशत पर आ गई। भारत के 24 राज्यों औरकेंद्र शासित प्रदेशों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा प्रदर्शन किया है और यह इस बूते ही संभव हुआ है कि महिलाओं को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। इसमें वर्ष 2000 में बनी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की भी अहम भूमिका रही है।

 जनसंख्या वृद्धि दर इस तरह हुई कम

भारत की कुल जनसंख्या वृद्धि दर लगातार कम हुई है। कभी 1971 में एक स्त्री द्वारा औसतन 5.2 बच्चों को जन्म दिया जा रहा था। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में यह दर लगातार कम हुई है। भारत प्रति स्त्री द्वारा 2.1 की संतोषजनक जन्म दर को अगले पांच वर्षों में प्राप्त कर सकता है। तब करीब-करीब 'यह हम दो हमारे दो' की स्थिति हो जाएगी।  

2100 में देश में आधी आबादी को सहारे की जरूरत होगी संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड पापुलेशन प्रॉस्पेक्ट्‌स के अनुसार वर्ष 1950 में भारत में प्रति 100 व्यक्तियों पर 6.4 बुजुर्ग थे। इस सदी के पूरा होने तक यानी 2100 में भारत में प्रति 100 व्यक्तियों में से 49.9 लोग ऐसे होंगे जो बुजुर्गावस्था में होंगे और उन्हें सहारे की जरूरत होगी। तब जितने लोग कामकाजी होंगे उतनी ही आबादी ऐसी भी होगी जिसे देखभालकी जरूरत होगी।

साभार- नयी दुनिया 

भारतीय लोकाचार के अनुरूप नहीं है समलैंगिक विवाह : केंद्र सरकार

 केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की दलीलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पार्टनर के रूप में एक साथ रहना और समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा यौन संबंध बनाना, जिसे अब अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, भारतीय परिवार इकाई एक पति, एक पत्नी व उनसे पैदा हुए बच्चों के साथ तुलनीय नहीं है। 

केंद्र ने जोर देकर कहा कि समलैंगिक विवाह सामाजिक नैतिकता और भारतीय लोकाचार के अनुरूप नहीं है।   एक हलफनामे में, केंद्र सरकार ने कहा कि शादी की धारणा ही अनिवार्य रूप से विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के बीच एक संबंध को मानती है। यह परिभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी रूप से विवाह के विचार और अवधारणा में शामिल है और इसे न्यायिक व्याख्या से कमजोर नहीं किया जाना चाहिए। 

हलफनामे में कहा गया है कि विवाह संस्था और परिवार भारत में महत्वपूर्ण सामाजिक संस्थाएं हैं, जो हमारे समाज के सदस्यों को सुरक्षा, समर्थन और सहयोग प्रदान करती हैं और बच्चों के पालन-पोषण और उनके मानसिक और मनोवैज्ञानिक पालन-पोषण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।  केंद्र ने जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं।  

हलफनामे में कहा गया है कि सामाजिक नैतिकता के विचार विधायिका की वैधता पर विचार करने के लिए प्रासंगिक हैं और आगे, यह विधायिका के लिए है कि वह भारतीय लोकाचार के आधार पर ऐसी सामाजिक नैतिकता और सार्वजनिक स्वीकृति का न्याय करे और उसे लागू करे।  

केंद्र ने कहा कि एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच विवाह या तो व्यक्तिगत कानूनों या संहिताबद्ध कानूनों के तहत होता है, जैसे कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, ईसाई विवाह अधिनियम, 1872, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 या विदेशी विवाह अधिनियम, 1969।  यह प्रस्तुत किया गया है कि भारतीय वैधानिक और व्यक्तिगत कानून शासन में विवाह की विधायी समझ बहुत विशिष्ट है। केवल एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच विवाह, यह कहा।  

इसमें कहा गया है कि विवाह में शामिल होने वाले पक्ष एक ऐसी संस्था का निर्माण करते हैं, जिसका अपना सार्वजनिक महत्व होता है, क्योंकि यह एक सामाजिक संस्था है, जिससे कई अधिकार और दायित्व प्रवाहित होते हैं।  हलफनामे में कहा गया है, शादी के अनुष्ठान/पंजीकरण के लिए घोषणा की मांग करना साधारण कानूनी मान्यता की तुलना में अधिक प्रभावी है। पारिवारिक मुद्दे समान लिंग से संबंधित व्यक्तियों के बीच विवाह की मान्यता और पंजीकरण से परे हैं।  

केंद्र की प्रतिक्रिया हिंदू विवाह अधिनियम, विदेशी विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम और अन्य विवाह कानूनों के कुछ प्रावधानों को इस आधार पर असंवैधानिक बताते हुए चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आई कि वे समान लिंग वाले जोड़ों को विवाह करने से वंचित करते हैं।   केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की दलीलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पार्टनर के रूप में एक साथ रहना और समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा यौन संबंध बनाना, जिसे अब अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है।   

केंद्र ने कहा कि हिंदुओं के बीच, यह एक संस्कार है, एक पुरुष और एक महिला के बीच पारस्परिक कर्तव्यों के प्रदर्शन के लिए एक पवित्र मिलन और मुसलमानों में, यह एक अनुबंध है, लेकिन फिर से केवल एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच ही परिकल्पित किया जाता है। इसलिए, धार्मिक और सामाजिक मानदंडों में गहराई से निहित देश की संपूर्ण विधायी नीति को बदलने के लिए शीर्ष अदालत की रिट के लिए प्रार्थना करने की अनुमति नहीं होगी।  

केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी समाज में, पार्टियों का आचरण और उनके परस्पर संबंध हमेशा व्यक्तिगत कानूनों, संहिताबद्ध कानूनों या कुछ मामलों में प्रथागत कानूनों/धार्मिक कानूनों द्वारा शासित और परिचालित होते हैं। किसी भी राष्ट्र का न्यायशास्त्र, चाहे वह संहिताबद्ध कानून के माध्यम से हो या अन्यथा, सामाजिक मूल्यों, विश्वासों, सांस्कृतिक इतिहास और अन्य कारकों के आधार पर विकसित होता है और विवाह, तलाक, गोद लेने, रखरखाव, आदि जैसे व्यक्तिगत संबंधों से संबंधित मुद्दों के मामले में या तो इसमें कहा गया है कि संहिताबद्ध कानून या पर्सनल लॉ क्षेत्र में व्याप्त है।  

यह प्रस्तुत किया गया है कि समान लिंग के व्यक्तियों के विवाह का पंजीकरण भी मौजूदा व्यक्तिगत के साथ-साथ संहिताबद्ध कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करता है।  हलफनामे में कहा गया है कि एक पुरुष और महिला के बीच विवाह के पारंपरिक संबंध से ऊपर कोई भी मान्यता, कानून की भाषा के लिए अपूरणीय हिंसा का कारण बनेगी। 

साभार-देशबंधु.इन    

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

क्या है न्याय व्यवस्था की बीमारी का इलाज!

 इस संदर्भ में अगर भारतीय न्याय व्यवस्था का आकलन करें तो बहुत निराशाजनक दृश्य सामने आता है। इन दिनों लोग यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि कोर्ट के बाहर ही निपटारा कर लो वरना जिंदगी भर पांव घीसते रहोगे। यह बताता है कि भारत में न्याय इतनी देर से मिलता है कि वह अंधेर में बदल जाता है। यही कारण कि चीफ जस्टिस को कहना पड़ा कि 18 हजार जज मिलकर 3 करोड़ मुकदमों का भार नहीं उठा सकते।

 भारतीय न्याय व्यवस्था की स्थिति की पड़ताल उनके इस बयान के संदर्भ में जरूरी हो जाती है।  इस बयान से यह स्पष्ट रूप में समझ आता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था जजों की कमी से जूझ रही है। जजों की संख्या बढ़ाया जाना सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होना चाहिए। अमूमन राजनेताओं की इसमें दिलचस्पी कम ही होती है। अदालत की कछुआ चाल उनके लिए अधिक सुविधाजनक होती है। भले ही भ्रष्टाचार के मामले हों या फिर उनके कार्यों को चुनौती देने वाली याचिकाएं। उनकी इच्छा यही नजर आती है कि अदालत में जाने वाले मामले लंबे समय तक लंबित रहें। इसमें वे अपने लिए राहत देखते हैं। सरकार को चाहिए कि वह अदालतों को प्रकरणों के त्वरित निपटारे के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध करवाए।  

भारत के चीफ जस्टिस कहते हैं कि लोगों में इस बात के लिए चेतना लाना जरूरी है कि वे राजनेताओं को समय पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए बाध्य करें। अपनी इस भूमिका से तो जनता भी अनजान ही है। लंबे समय से खाली पड़े जजों के पद न्याय को सुलभ कैसे करवा सकते हैं। सैंकडों साल चलने वाले मुकदमों से मुक्ति भी तभी संभव है जबकि पर्याप्त जज हों। फिर यह भी कि ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर सरकार के बजाय अदालत को अपना समय देना पड़ता है।   

दूसरे अर्थों में कहें तो जिस सुशासन की जिम्मेदारी सरकार पर है वह काम अदालत को करना होता है। सड़क पर सम और विषम नंबर वाले वाहनों के चलने का मुद्दा हो या फिर स्कूल में एडमिशन को लेकर गाइडलाइन का पालन। इन सभी मुद्दों पर अदालत का बहुत समय जाता है तो उसके पास आम आदमी के प्रकरणों के लिए समय कम हो जाता है। ये सारे मुद्दे कार्यपालिका की जिम्मेदारी पर ही छोड़ दिए जाने चाहिए। कार्यपालिका को इन मुद्दों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभानी चाहिए।  

ऊपर अपील से बढ़ रहा बोझ  न्यायपालिका को प्रकरणों के निपटारे का समय छह माह या एक वर्ष तय करना चाहिए जैसा दुनिया के अन्य विकसित देश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका में स्पीडी ट्रायल एक्ट 1947 के अनुसार यह सुनिश्चित किया गया है कि सारे प्रकरण एक समयसीमा में हल किए जाएंगे। केवल अपवाद के रूप में सामने वाले प्रकरणों में ही अधिक समय लग सकता है।  

हालांकि सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में प्रकरण के विभिन्ना चरणों के लिए समय सीमा तय की गई है लेकिन पूरे प्रकरण के निपटारे के लिए लगने वाले अधिकतम समय के बारे में स्पष्टता का अभाव है। यह बचाव पक्ष और अभियोजन पक्ष को केस की सुनवाई को कई मर्तबा आगे बढ़वाने की सुविधा देता है और सालों साल केस अदालत में लटके रहते हैं। प्रकरण के स्थगन की सुविधा को लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और अदालतें मूक दर्शक बनी हैं।  

भारत में बड़ी संख्या में की जाने वाली अपील भी बड़ा मुद्दा है। इसके कारण शीर्ष अदालतों पर बोझ बहुत ज्यादा बढ़ जाता है और वहां प्रकरण इकट्ठा होते जाते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे प्रकरणों पर नजर डालें तो उनमें कई प्रकरण बहुत ही मामूली बातों को लेकर भी हैं। तलाक और कॉलेज में एडमिशन के मामले भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं।  मामूली प्रकरण के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाने की वजह यह है कि संविधान ने सुप्रीम कोर्ट तक जाने की आजादी हर व्यक्ति को दी है। हर व्यक्ति अपने केस की मेरिट देखे बगैर उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है। इसके लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है।  

भारत की न्याय व्यवस्था ब्रिटेन और अमेरिका मॉडल पर आधारित है और इसलिए वहां की न्याय प्रणाली को देखा जाना जरूरी है। एक अध्ययन के अनुरूप 2006 से 2011 के बीच भारतीय उच्चतम न्यायालय ने 500 सामान्य मामलों का निपटारा किया और हर महीने यहां 5000 केस नए आ गए। इसके मुकाबले इंग्लैंड की सुप्रीम कोर्ट में 2010 से 2013 के बीच एक दर्जन जज ने मिलकर एक वर्ष में औसतन 70 मामले निपटाए।  इन सुधारों से बन सकती है बात  उच्चतम न्यायालय के एक न्यायधीश के अनुसार निचली अदालतों में आने वाले प्रकरणों को उनकी प्रवृत्ति और स्थिति के अनुरूप अलग-अलग श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए और तय किया जाना चाहिए कि किन प्रकरणों में त्वरित निर्णय जरूरी है। जैसे सीनियर सिटीजन और गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति के प्रकरणों में त्वरित सुनवाई की जरूरत होती है। यहां दूसरे मामलों की गंभीरता को कम करना बिल्कुल भी उद्देश्य नहीं है लेकिन व्यक्ति के जीते-जी मामलों का निपटारा जरूरी है।  

भारतीय अदालतों में अभी भी ज्यादातर काम कागज पर होता है जबकि विदेश की अदातलें पेपरलेस हो चुकी हैं। कार्यपालिका ने ई-कोर्ट्स की स्थापना को भी मंजूरी दे दी है लेकिन जिन अदालतों में काम कागज पर हो रहा है उसे सुधारने की जरूरत है। ई-कोर्ट्स में सारी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और लेटलतीफी से मुक्ति मिलेगी।  निचली अदालतों द्वारा लिखे जाने वाले फैसले बहुत स्पष्ट और संक्षिप्त होने चाहिए ताकि जब मामला ऊपरी अदालत तक पहुंचे तो अपीलीय अदालत बहुत जल्दी से पूरे मामले और उस पर सुनाए गए फैसले के कारणों को समझ सके।  किसी भी प्रकरण में बार-बार तारीख दिए जाने से जल्दी सुलझने वाला मामला लंबे समय तक चलता रहता है। मामले को स्थगित रखना दोषी का पक्ष लेने और न्याय की आस करने वाले के खिलाफ जाता है।  

26/11 या फिर सलमान खान हिट एंड रन केस या इसी तरह के अन्य बड़े मामलों का उच्च अदालत तक पहुंचना तय है तो फिर उनके लिए निचली अदालत का समय क्यों जाया हो। इन प्रकरणों को सीधे ही उच्च अदालत द्वारा क्यों न सुना जाए। बहुत सारे लोग निचली अदालतों के न्याय से ही संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन वह न्याय भी उन्हें मिले तो।  न्यायालयों में जजों की नियुक्ति लंबे समय तक अटकी पड़ी रहती है और इस दिशा में त्वरित सुधार की जरूरत है ताकि जजों के खाली पड़े पदों पर नियुक्ति संभव हो सके। लॉ कॉलेज की स्थिति सुधारना भी आवश्यक।  फिजूल प्रकरणों को लंबे समय तक खींचने के बजाय उन्हें तुरत ही निपटाया जाए। 

बहुत छोटी बातों पर होने वाले विवादों को न्यायालय में स्वीकार किया जाएगा या नहीं इस पर भी स्पष्ट दिशा निर्देश होने चाहिए। खासकर तब जबकि अदालतों पर केस का इतना ज्यादा बोझ है।  टैक्स नीति या पर्यावरण नीति जैसे तकनीकी मुद्दों से जुड़े प्रकरणों में भी अदालत को बहुत वक्त देना पड़ता है जबकि इन मुद्दों को सरकार अपने स्तर पर निपटा सकती है।    

भारत और अमेरिका में यह फर्क  एक अन्य अध्ययन बताता है कि भारतीय उच्चतम न्यायालय अपने समक्ष आने वाली हर पांच में से 1 अपील को स्वीकार कर लेता है इस लिहाज से यह आने वाले मामलों के मुकाबले स्वीकार करने वाले मामलों का 20 प्रतिशत हुआ जबकि अमेरिका में यह दर केवल 1 प्रतिशत है। वहां 100 केस में से केवल 1 केस स्वीकार किया जाता है। इसी भारतीय न्यायधीशों पर काम का बोझ निश्चित रूप से ज्यादा है।  इन सारे कारणों से भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय के लिए लगाई जाने वाली पुकार दबकर रह जाती है। न्याय की आस में गुहार लगाने वालों को लंबे समय इंतजार करना पड़ता है। सिर्फ जज की संख्या बढ़ाए जाने से काम नहीं चलेगा और व्यवस्था के अन्य पक्षों पर भी सुधार की दरकार है। जजों की कमी तो इस पूरी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भर है। 

विदेशों में लंबित प्रकरण इसलिए नहीं  दुनिया के विकसित देशों में अदालतों में प्रकरणों के लंबित रहने की समस्या नहीं है। उदाहरण के लिए अमेरिका के उच्चतम न्यायालय में सिलेक्टिव डॉकेट सिस्टम लागू है। वहां किसी याचिका को स्वीकार करने से पहले सुप्रीम कोर्ट के 9 में से 4 जज का मानना जरूरी है कि याचिका में ऐसे प्रश्न हैं जों संघीय कानून या संविधान की अधिक व्याख्या की मांग करते हैं। इस तरह उसके सामने हर वर्ष जो 7000 याचिकाएं पहुंचती हैं उनमें से केवल 75-80 को ही सुना जाता है।  

जर्मनी जैसे देशों में फेडरल कॉन्स्टीट्यूशनल कोर्ट हर प्रस्तुत याचिका को परखती है। 3 जज की एक पैनल जिसे चेम्बर कहा जाता है प्रकरणों की जांच करती हैं। ऐसी याचिकाएं जो कोई नया मुद्दा नहीं उठाती उन्हें तुरंत खत्म किया जाता है। कोर्ट केवल उन्हीं याचिकाओं को सुनती है जो चेंबर की जांच में खरे उतरते हैं।  अमेरिकी अदालत में एक बार केस डॉकेट में आ जाने के बाद तय समय-सीमा का पालन होता है। सुनवाई की तारीख कोर्ट के कैलेंडर में दर्ज हो जाती हैं। एक बार कैलेंडर में दर्ज हो जाने पर उनमें शायद ही कोई बदलाव होता है। हर केस को दो सप्ताह में सुनवाई के लिए लगाया जाता है और वकीलों को अपने पक्ष में 30 मिनट दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त समय किसी भी वकील को नहीं दिया जाता। इस तरह तुरंत न्याय उपलब्ध कराया जाता है।

अभिषेक कपूर

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

ज़वाहिरी मारा गया, मगर सवाल बाक़ी हैं

जवाहिरी मारा गया, मगर सवाल बाक़ी हैं 

अंग्रेज़ी के लोकप्रिय लेखक जेफ़री आर्चर के उपन्यास 'फॉल्स इंप्रेशन्स' की नायिका 11 सितंबर 2001 की सुबह इंग्लैंड से लौट कर न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की चौरासीवीं या पचासीवीं मंज़िल पर बने अपने दफ़्तर में पहुंचती है। कुछ देर बाद उसे ज़ोर की आवाज़ सुनाई पड़ती है और वह सिहरते हुए देखती है कि एक विमान एक टावर से टकराया है। भागदौड़ और अफरातफ़री के बीच दूसरा विमान भी दूसरे टावर से टकराता है और वह नीचे भागती है। कई घंटे बाद धूल-गर्द, कालिख और गंदगी से सनी वह निकल पाती है। निकल कर एक दोस्त के घर पहुंचती है। वहां टीवी पर फिर वही विमानों के टकराने वाला दृश्य देखती है और उसे उबकाई सी आती है। जो दूसरों के लिए शायद सनसनी या मनोरंजन का मसाला था, वह उस इमारत के ध्वंस से घिरे लोगों के लिए एक पूरी दुनिया का ध्वस्त हो जाना था।

11 सितंबर 2001 की वह सुबह इतिहास की स्मृति से जाने वाली नहीं है जब अलग-अलग विमान बहुत मामूली अंतरालों पर अमेरिका की शक्ति और संपन्नता के सबसे ऊंचे और मज़बूत प्रतीकों से टकराते रहे। दुनिया की सबसे ऊंची इमारतों में एक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर दो टावर बिल्कुल ज़मींदोज़ हो गए और एक विमान पेंटागन के ऊपर भी गिरा। जब ये हमले हो रहे थे, तब जॉर्ज बुश फ्लोरिडा के सारासोटा में एक स्कूल का दौरा कर रहे थे। जब जॉर्ज बुश एम्मा ई बुकर नाम के उस स्कूल की ओर जा रहे थे, तब उन्हें पहला विमान टकराने की ख़बर मिली। जब वे क्लास रूम में बच्चों से बात कर रहे थे, तब दूसरा विमान टकराने की सूचना मिली। इसके बाद भी कई मिनट वे क्लास में रहे, फिर उठ कर उन्होंने फोटो सेशन में हिस्सा लिया और उसके बाद एक ख़ाली कमरे में जाकर उन्होंने हालात का जायज़ा लिया, उपराष्ट्रपति डिक चेनी से बात की।

इस आतंकी हमले को लेकर बनी माइकल मूर की फिल्म 'नाइन इलेवन फॉरेनहाइट' आरोप लगाती है कि अमेरिका पर हुए इस आतंकी हमले का सबसे पहला फ़ायदा जॉर्ज बुश को ही मिला। उनके राष्ट्रपति बने बस सात महीने हुए थे और इन सात महीनों में वे लगातार विरोध प्रदर्शनों से घिरे थे। उन पर चुनाव में घपले का इल्ज़ाम था और प्रदर्शनकारी लगातार दबाव बना रहे थे। लेकिन इस हमले के तत्काल बाद जॉर्ज बुश ने आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध का एलान किया और निष्कंटक राष्ट्रपति बन गए।

इसी फिल्म में एक दावा और है। 11 सितंबर के हमले के बाद जब पूरे अमेरिका में विमानों की उड़ान रुकी हुई थी, तब बस एक विमान उड़ा जिसमें ओसामा बिन लादेन के परिवार को सुरक्षित बाहर निकाला गया।

हो सकता है, ये दावे अतिवादी हों। संभव है, इनके पीछे हर जगह साज़िश खोजने वाली अतिरिक्त सतर्क दृष्टि हो। लेकिन फिलहाल इसको स्थगित करते हैं और कुछ दूसरे संदर्भों की ओर चलते हैं। कैथी स्कॉट क्लार्क और ऐड्रियन लेवी की किताब 'द एक्साइल' के दो प्रसंग उल्लेखनीय हैं। एक प्रसंग के मुताबिक अमेरिकी और पाकिस्तानी सेनाओं ने तोराबोरा की पहाड़ियों में छुपे ओसामा बिन लादेन को लगभग घेर लिया था। माना जा रहा था कि अगली सुबह वह पकड़ा जाएगा। लेकिन जब अगली सुबह अमेरिकी सैनिक जागे तो उन्होंने देखा कि घेराबंदी में लगी पाकिस्तानी सेना पूरी तरह गायब है और ओसामा बिन लादेन निकल चुका है। यह पता चलता है कि 13 दिसंबर 2001 को भारत में संसद भवन पर हमला हुआ है और भारत-पाक सीमा पर बढ़ते तनाव की वजह से सेनाओं को उस मोर्चे पर भेज दिया गया है। 'द एक्साइल' के लेखकों  ने बहुत हल्का संदेह यह भी जताया है- जिसके कोई प्रमाण उनके पास नहीं हैं- कि भारतीय संसद पर हमला ही इसलिए कराया गया कि पाक सेनाओं को तोराबोरा की पहाड़ियों से हटाने का बहाना निकाला जा सके। वे पूछते हैं कि क्या यह संभव था कि जैश के लोग अपने आका आइएसआई को बताए बगैर भारतीय ज़मीन पर इतना बड़ा हमला कर डालें?

इसी किताब में दो और दिलचस्प प्रसंग मिलते हैं जो बताते हैं कि आतंकवाद या कोई भी मसला जांच एजेंसियों के भीतर किस तरह की राजनीति से संचालित होता है। किताब के मुताबिक पहले इस आतंकी हमले की जांच एफबीआई के हाथ थी जिसने साज़िश की कई तहें खोज निकाली थीं। लेकिन सीआइए और एफबीआई में टकराव चला, जांच अंततः सीआइए के हाथ गई और उसने फिर पूरा तरीक़ा बदल दिया जिसमें गुआंतानामो बे सहित कई यातना शिविरों और यातना के नए उपकरणों की भरपूर जगह थी। यही नहीं, अमेरिका के आतंकवाद निरोधी केंद्र ने जो रिपोर्ट तैयार की थी, उसमें बताया गया कि ओसामा बिन लादेन के समर्थक और परिवारवाले ईरान में छुपे हुए हैं। इराक में कुछ सद्दाम विरोधियों का समर्थन उन्हें ज़रूर हासिल है, लेकिन वे ज़्यादा ईरान में रह रहे हैं। जब ये रिपोर्ट सदन में पढ़ी जा रही है तब सीटीसी की डायरेक्टर यह देखकर हैरान रह जाती है कि रिपोर्ट बदल दी गई है। जाहिर है, अमेरिका को ऐसी रिपोर्ट चाहिए थी जिसके आधार पर वह इराक और अफ़गानिस्तान पर हमला कर पाता। इसके अलावा इन सारे तथ्यों को याद करने का मक़सद बस यह बताना है कि आतंकवाद का मसला इतना सीधा सपाट नहीं है। जॉर्ज बुश से लेकर बराक ओबामा और जो बाइडन तक को यह अलग-अलग ढंग से रास आता है। ऐसा नहीं कि अल क़ायदा कोई मासूम संगठन है या अल ज़वाहिरी के मारे जाने पर किसी को दुख मनाना चाहिए। आततायी जब मारे जाते हैं तो कोई दुखी नहीं होता। लेकिन अल क़ायदा, तालिबान या आइएसआइएस जैसे संगठन कहां से खड़े होते हैं, कौन उन्हें ताकत और पोषण देता है? यह इतिहास किसी से छुपा नहीं है। अमेरिका ने अपने हितों के लिए तालिबान को खड़ा किया, आइएस की करतूतों से आंख मूंदी और चुपचाप उन देशों की मदद करता रहा जो आतंकी ताकतों को संरक्षण देते रहे। लोकतंत्र का वास्ता देते हुए उसने वहां की मज़बूत सरकारों को गिराया, वहां की उदार शासन व्यवस्थाओं को ध्वस्त किया और अंततः उन्हें ऐसी अराजकता में धकेल दिया जिसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा कट्टरपंथी समूहों और संगठनों को मिला।

2001 में जब अमेरिका ने आतंक के ख़िलाफ युद्ध का एलान किया तो जिन देशों ने सबसे पहले साथ देने की पेशकश की, उनमें भारत भी था, लेकिन अमेरिका ने उस पाकिस्तान से मदद लेना मंज़ूर किया जो आतंकवाद के पोषण में कभी उसका साझीदार रहा। यह लगभग खुला राज रहा कि मुशर्रफ अमेरिका से भी पैसे लेते रहे और आतंकियों के मददगार भी बने रहे। लेकिन अमेरिका यह जानते-बूझते इसे नज़रअंदाज़ करता रहा। बिल्कुल हाल में इमरान खान ने अपनी विदाई के दिनों में भाषण देते हुए पाकिस्तान को बदनाम और बरबाद करने वाले इस अमेरिकी रुख़ पर अफ़सोस जताया था, लेकिन पाकिस्तान की अपनी भूमिका पर वे खामोश रहे।

इन सारी बातों का भारत के लिए क्या मतलब है? भारत में 2008 के मुंबई हमले को 9/11 की तर्ज पर 26/11 बताने वाले भूल जाते हैं कि जिस सितंबर को अमेरिका पर हमला हुआ था उसी दिसंबर को भारतीय संसद को भी निशाने पर लिया गया। उस हमले का लाभ भी तत्कालीन यूपीए सरकार को मिला जो तब कैश फॉर वोट सहित कई आरोपों में घिरी सरकार अचानक सारी बहसों से मुक्त हो गई। 2019 से पहले पुलवामा के आतंकी हमले का लाभ भी मोदी सरकार को मिला, यह बात सब मानते हैं।

लेकिन तो क्या करें? क्या आतंकवाद से नहीं लड़ें? इस पर चुप रहें? दरअसल यह समझने की ज़रूरत है कि आतंकवाद बहुत गंभीर परिघटना है, सिर्फ़ अपने हिंसक नतीजों की वजह से नहीं, बल्कि अपने निर्माण की प्रक्रिया से भी। कई बार आतंकी संगठन ख़त्म हो जाते हैं, लेकिन आतंकवाद बचा रहता है। उसकी परिणतियां भी बची रहती हैं। उससे लड़ने के लिए कई मोर्चों की रणनीति ज़रूरी होती है। इसमें राज्य तंत्र का- ख़ुफ़िया एजेंसियों का, सुरक्षा बलों का और सरकारों का बहुत अहम योगदान होता है। लेकिन अगर कोई नेता इसे अपने निजी एजेंडा या निजी पराक्रम की तरह प्रस्तुत करता है तो उस पर संदेह करना चाहिए। कोई अगर कहता है कि वह आतंकवाद का ख़ात्मा करने के लिए आया है तो मानना चाहिए कि दरअसल वह अपने देश के ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाना चाहता है, अपने विरोधियों को ठिकाने लगाना चाहता है और बस अपने फ़ायदे की राजनीति करना चाहता है। इसका ख़तरा यह भी होता है कि वह एजेंसियों का दुरुपयोग शुरू करता है और इस क्रम में उन्हें कम पेशेवर बना कर छोड़ देता है। यह हमने अमेरिका में होता देखा है और इससे हमें हर जगह सावधान रहना चाहिए।

लेकिन जॉर्ज बुश जैसे शासकों का अंततः क्या होता है? इस सवाल का जवाब 14 दिसंबर 2008 को मुंतज़िर अल जैदी नाम के एक इराकी पत्रकार ने दिया था। प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने अपने जूते फेंककर बुश को मारना चाहा। बुश बच गए, लेकिन मीडिया पर जूता बार-बार उछलता रहा। अमेरिकी टावरों पर विमानों के टकराने का दृश्य जितनी बार चला होगा, सात साल बाद बुश पर उछले जूते का दृश्य टीवी पर उससे कम नहीं चला होगा। विमानों के टकराने का दृश्य दुहराया जाता देख जेफरी आर्चर की नायिका को उबकाई सी आई थी, लेकिन बुश के जूते वाले दृश्य का क्या हुआ। हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका अलका सरावगी ने अपने एक कॉलम में लिखा था- वे बार-बार यह दृश्य देखती हैं, इस उम्मीद में कि वह जूता कभी तो बुश को लग ही जाएगा।

(साभार-प्रियदर्शन)

रविवार, 24 अप्रैल 2022

'फन एंड लर्न' के कांसेप्ट पर आधारित शिक्षा प्रणाली है 'जौली फोनिक’, जानिये इसके बारे में विस्‍तार से

 प्री स्कूल स्तर पर छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए पूरी दुनिया में 'फन एंड लर्न' के कांसेप्ट पर आधारित शिक्षा प्रणाली 'जौली फोनिक' लोकप्रिय हो रही है। 

इंदौर स्थित यू.सी.किंडीज स्कूल 'जौली फोनिक' विशेषज्ञ स्कूल है। इस स्कूल की सेवाएं पिछले 2 साल से इंदौर शहर के गोपुर कॉलोनी पर भी उपलब्ध हो रही है। 

क्या है 'जौली फोनिक' ?

गोपुर कॉलोनी स्थित की डायरेक्टर मीता बाफना के अनुसार 'जौली फोनिक' को एक प्रकार से ऐसी शिक्षा पद्धति कहा जा सकता है जिसमें 2 साल से 7 साल के बच्चों को फ्लैश कार्ड, साउंड और बॉडी एक्शन के माध्यम से बोलना एवं पढऩा सिखाया है। उदाहरण के तौर पर टीचर जब 'बी' अल्फाबेट दिखाती है तो साथ में उसका साउंड 'ब' भी एक्शन के साथ बताती है, इससे बच्चे बहुत सारे शब्द पढऩा एवं बोलना खेल-खेल में सीख जाते हैं। '

जौली फोनिक' विशेषज्ञ स्कूल है 

'यू.सी.किंडीज' इंदौर स्थित 'यू.सी.किंडीज' स्कूल जौली फोनिक' विशेषज्ञ स्कूल है। यूसी किंडीज यूसी इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन का एक हिस्सा है। यह 5 देशों - भारत, मिस्त्र, चीन, मलेशिया और ईरान में वैश्विक उपस्थिति के साथ एक अंतराष्ट्रीय प्रीस्कूल है। 'यू.सी.किंडीज' स्कूल की सेवाएं पिछले 2 साल से इंदौर शहर की गोपुर कॉलोनी पर भी उपलब्ध हो रही है। गोपुर कॉलोनी वाली 'यू.सी.किंडीज' की खासियत गोपुर कॉलोनी वाली 'यू.सी.किंडीज' की खासियत की बात करें तो पाएंगे कि यहां बच्चों को सामान्य एबीसीडी की शिक्षा देने की बजाय बच्चों को जौली फोनिक के माध्यम से अक्षर ज्ञान दिया जाता है। यहां आर्ट और साइंस को विशेष तरीके से रूबरू करवाया जाता है जिससे बच्चे प्रैक्टिकल लर्निंग करते हैं। यहां बच्चों के मानसिक और शारीरिक सुरक्षा का विशेष ध्यान दिया जाता है। यहां बच्चों को कोरोना महामारी से बचाने के लिए सभी सुरक्षात्मक उपाय किए गए हैं। सभी शिक्षकों ने अपना कोविड वैक्सीनेशन करवा लिया है। इस स्कूल की डायरेक्टर मीता बाफना सुनिश्चित करती हैं कि बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल के साथ बिना किसी मानसिक तनाव के आनंदमयी तरीके से अक्षर ज्ञान दिया जाए। 

नवोदित शेखावत  

साभार- नई दुनिया 

समाज की बात samaj ki baat

आत्महत्या नहीं है अवसाद व समस्याओं का हल, जीवन शैली में बदलाव करने से मिलेगा हल

 छात्रों द्वारा किसानों द्वारा प्रसिद्ध सितारों व उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों की आत्महत्या की खबरें हमें इस विषय पर सोचने को मजबूर करती हैं।   

हाल के दिनों में कोविड-19 के कारण उपजी भयावह परिस्थितियों जैसे बेरोजगारी गरीबी अकेलापन घरों से बेघर होना आदि समस्याओं ने खुदकुशी की प्रवृत्तियों में इजाफा किया है। एनसीआरबी द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में बेहद चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। यह दुनिया में होने वाली मौतों का दसवां सबसे बड़ा कारण है हमारे देश में ही हर साल एक लाख से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं।   

छात्रों द्वारा किसानों द्वारा प्रसिद्ध सितारों व उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों द्वारा की गई आत्महत्या की खबरें हमें इस विषय पर सोचने को मजबूर कर देती हैं। आजकल की बढ़ती चकाचौंध की दुनिया हमें अकेलेपन का शिकार बना रही है। यही अकेलापन धीरे-धीरे अवसाद में तब्दील होकर आत्महत्या जैसे दुष्परिणाम ला रहा है। आत्महत्या के कई कारण हो सकते हैं जैसे तनावपूर्ण जीवनशैली मानसिक रोग घरेलू समस्याएं आदि।   हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों में जागरूकता की कमी है व सरकार का भी इस ओर कोई रुझान नहीं है। 

कई बार कुछ सामाजिक कारणों से भी व्यक्ति ऐसा कदम उठाता है जैसे क्लास में प्रथम ना आना, किसी प्रतिष्ठित पद की परीक्षा को पास न कर पाना, नौकरी ना मिल पाना आदि इस समस्या से निपटने के लिए हमें इसके मूल कारण जानकर उनका समाधान ढूंढना चाहिए।  

 हमें शारीरिक व मानसिक स्तर पर कुछ आदतों व जीवनशैली में बदलाव करने की भी आवश्यकता है, जैसे-व्यायाम ध्यान योग खेलकूद आदि करना पौष्टिक आहार लेना समय पर सोना व उठना। नशीले पदार्थों के सेवन से बचना हमेशा सकारात्मक रहना सोशल मीडिया का उपयोग एक सीमा तक करना आदि। टेक्नोलॉजी की इस दुनिया में हम अपने परिवार, दोस्तों व प्रकृति सभी से दूर होते जा रहे हैं। हमें समय निकालकर इनके साथ वक्त बिताना चाहिए अपनी बातों व परेशानियों को साझा करना चाहिए। जरूरत पड़ने पर हमें मनोचिकित्सक की सलाह लेने से भी संकोच नहीं करना चाहिए तभी इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।  

अंकिता श्रीवास्तव  

साभार- नई दुनिया 

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रविवार, 21 नवंबर 2021

तीर-धनुष थामे संघर्ष की अग्नि में कूदे और बिरसा से भगवान बने

 छोटा नागपुर का क्षेत्र आदिवासियों का एक सघन क्षेत्र है। इसी क्षेत्र के एक किसान परिवार में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। आदिवासी जीवन स्वच्छंद और छल-छद्म से रहित था। इनके जीवन का आधार थे- जंगल, जमीन, जल और जंतु। परंतु शोषण की अमानवीय प्रतिक्रिया ने आदिवासी समुदाय की सामाजिक व्यवस्था को जर्जर कर दिया था। इस कठिन समय में इस धरती पर बिरसा मुंडा का आविर्भाव हुआ। शोषण से मुक्ति के लिए उन्होंने उलगुलान का आंदोलन चलाया, जो क्रमश: सामाजिक क्रांति का द्योतक बन गया। इस शोषण प्रक्रिया के प्रमुख अत्याचारी 'दिकु" थे जो बाहर से आकर इस क्षेत्र की वन और धरती संपदा को हड़प लेना चाहते थे। ब्रिटिश शासन इनके साथ था।  

दिकु धीरे-धीरे जमींदार, ठेकेदार और जागीरदार बन गए। इस समय न्याय की आशा पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। आदिवासियों के लिए समस्याएं बढ़ती चली जा रही थीं। बिरसा मुंडा ने इन ज्वलंत समस्याओं को समझा और 25 वर्ष का एक युवा मात्र तीर-धनुष थामे संघर्ष की अग्नि में कूद पड़ा। बिरसा के हृदय में यह अग्नि इतनी प्रज्ज्वलित थी कि देखते ही देखते वह मुंडा समुदाय का हृदय-सम्राट बन गया। 

बिरसा मुंडा केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे। उन्होंने अपने समाज को नए विचार दिए, अपनी एक उन्ननतशील विचारधारा दी तथा धार्मिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए लोगों को मार्ग बताए। अपने इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही आदिवासी समाज ने उन्हें 'भगवान" की संज्ञा दी। आज भी वे बीर बिरसा, धरती आबा (धरती पिता) और बिरसा भगवान के नाम से याद किए जाते हैं। बिरसा ने जो धार्मिक मत स्थापित किया, बिरसैत धर्म उसे आज भी कई लोग अंगीकार किए हुए हैं। 

यह धर्म सर्वसमावेशी है और उन्नतत विचारों से पुष्ट है। बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन आदिवासियों के शोषण और उनकी अस्मिता पर प्रहार के विरोध में किया जाने वाला विद्रोह था। इस विद्रोह में बिरसा मुंडा कई धरातलों पर युद्धरत हुए। उन्होंने आदिवासियों के परंपरागत सामाजिक ढांचे में पैदा दरारों को भरने का प्रयत्न, दिकुओं द्वारा किए जा रहे अवैध कब्जे का विरोध और लोलुप ठेकेदारों और जमींदारों के अत्याचारों का विरोध किया। बिरसा मुंडा अपने लोगों को अत्याचारों से छुटकारा दिलाने के लिए बलिदानी रूप धर कर सामने आए। अपनी धार्मिक अस्मिता को अखंडित रखने के लिए उन्होंने धर्म उपदेशक का भी रूप धारण किया। बिरसा मुंडा में कबीर पंथियों का अस्तित्व था। स्वासी जाति के कुछ सदस्य वैष्णव धर्म का अनुसरण करते थे। 

बिरसा ईसाई धर्म से भी कुछ समय तक संबद्ध रहे। मिशनरी भी गए। एक बार जब वे बंदगांव पहुंचे तो उनका संपर्क आनंदपाण नामक व्यक्ति से हुआ जो वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। बिरसा को उनसे पौराणिक गाथाओं का ज्ञान मिला। इस अवधि में बिरसा शाकाहारी बन गए थे। उनमें आध्यात्मिक शक्ति आ गई थी। इस शक्ति से वे लोगों के रोग दूर करने लगे। लोग उनके पास आने लगे और उन्हें भगवान कहा जाने लगा। 1895 तक आते-आते बिरसा धार्मिक आंदोलन के प्रतीक बन चुके थे। 

धार्मिक प्रवर्तक के रूप में उन्होंने आदिवासी समुदाय को अंधविश्वासों से मुक्ति दिलवाई। इसी समय नया जंगल कानून आ गया। बिरसा का आंदोलन पहले अहिंसक था लेकिन उपदेशक और समाजसेवी के रूप में उनकी लोकप्रियता को देखकर शोषक विचलित हो गए। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजों ने दमन करने की ठान ली। बिरसैत कहलाने वाले बिरसा के अनुयायियों को यातनाएं दी जाने लगीं। बिरसा मुंडा जंगलों में छिपे रहने लगे। बिरसा के ही कुछ अनुयायियों ने बिरसा पर घोषित 500 रुपये के इनाम के लोभ में बिरसा को कैद करा दिया। 30 मई, 1900 को बिरसा ने जेल में भोजन नहीं किया। वे अस्वस्थ हो गए थे। नौ जून 1900 को क्रांति के इस महानायक की मृत्यु हो गई। 

स्वतंत्रता के बाद पुनर्जागरण के इस अग्रदूत को भारत सरकार ने उचित सम्मान प्रदान किया। 28 अगस्त, 1998 को भारत के संसद भवन परिसर में तत्कालीन राष्ट्रपति ने बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण किया और उन्हें असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी और एक साधारण युवा से भगवान बन गए। 

प्रो. प्रकाश मणि त्रिपाठी

साभार- नई दुनिया 

samaj ki baat समाज की बात 

सोमवार, 27 सितंबर 2021

पान मसाला, पैसा और अमिताभ बच्चन की सामाजिक जिम्मेदारी

 एक बहुत सीधा तर्क है कि एक व्यवसाय जो कुछ लोगों के लिए अच्छा है, क्या अकेला यही पर्याप्त कारण है कि उस वजह से बच्चन उसका समर्थन करेंगे। इस तरह तो बच्चन अपना अनुबंध बचाने के लिए वस्तुत: गुटका किंग और पान मसाला सेठों की ही बात कह रहे हैं। यह कुछ इस तरह बताया जा रहा है कि उनके कैंसरजनक उत्पादों पर किसी भी तरह के प्रतिबंध से कारखानों में नौकरियां घट जायेंगी, ऊपर और नीचे तक आपूर्ति और वितरण श्रृंखला ध्वस्त हो जायेगी।  

न्यूयॉर्क टाइम्स' पत्रिका में 13 सितंबर,1970 को नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने लिखा था- 'कारोबार की सामाजिक जिम्मेदारी अपने मुनाफे को बढ़ाना है।' यह सबसे अधिक उद्धृत किए जाने वाले उद्धरणों में से एक है। तब से दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है और फ्रीडमैन के इस विचार को कई विद्वानों, सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं और नेताओं ने सिरे से खारिज कर दिया है।

 व्यापार में आज कोई भी यह कहने के लिए खड़ा नहीं होगा कि उसका लक्ष्य सिर्फ अधिकतम लाभ कमाना है। लेकिन अमिताभ बच्चन ने ठीक यही कहा है, सिर्फ शब्दों में थोड़ा फेरबदल है।   सोशल मीडिया पर एक नाराज प्रश्नकर्ता ने इस मशहूर हिंदी फिल्म स्टार से पूछा कि उन्होंने पान मसाला के रूप में एक अवांछनीय उत्पाद का समर्थन क्यों किया है, बच्चन ने कहा कि उन्हें ऐसा करने के लिए भुगतान किया गया था। बच्चन की खासियत यह है कि वह हमेशा विनम्र, शांत और दोस्ताना होते हैं और इस मामले में भी उन्होंने ठंडे दिमाग से जवाब दिया। वे कहते हैं कि यह (पान मसाला) एक ऐसा व्यवसाय है जो कई लोगों को लाभ पहुंचाता है। वे आगे कहते हैं कि इसलिए मैं अपने व्यवसाय के बारे में भी सोचता हूं, और मुझे इसके लिए पैसा मिलता है और फिल्म उद्योग में काम करने वाले अन्य लोगों को भी ऐसे ही पैसा मिलता है। एक सादा और सरल जवाब- मामला बंद!  यह विवाद और आगे बढ़ता है। उसने बाद में एक और टिप्पणी में बच्चन से पूछा गया कि क्या वह अपनी पोती को इस विज्ञापित ब्रांड की पेशकश करेंगे जिस विज्ञापन और ब्रांड को बढ़ावा देने का खतरनाक प्रभाव पड़ता है? इस सवाल-जवाब के बाद से कुछ ही दिनों में इस मामले में बच्चन की काफी बदनामी हो गई जो इस बात का स्वस्थ संकेत है कि आम नागरिक अपने नायकों के ऐसे कामों को किस नजरिए से देखते हैं।   

एक बहुत सीधा तर्क है कि एक व्यवसाय जो कुछ लोगों के लिए अच्छा है, क्या अकेला यही पर्याप्त कारण है कि उस वजह से बच्चन उसका समर्थन करेंगे। इस तरह तो बच्चन अपना अनुबंध बचाने के लिए वस्तुत: गुटका किंग और पान मसाला सेठों की ही बात कह रहे हैं। यह कुछ इस तरह बताया जा रहा है कि उनके कैंसरजनक उत्पादों पर किसी भी तरह के प्रतिबंध से कारखानों में नौकरियां घट जायेंगी, ऊपर और नीचे तक आपूर्ति और वितरण श्रृंखला ध्वस्त हो जायेगी। दुर्भाग्यवश तंबाकूजन्य उत्पादों को भारत में एक खाद्य उत्पाद के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह चिंता की बात है तथा सरकार को इस मसले से निपटना चाहिए और यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसके जरिए बच्चन अपना बचाव कर सकें।   

मार्केट रिसर्च कंपनी आईएमएआरसी ग्रुप के मुताबिक पान मसाला की सालाना बिक्री 45,000 करोड़ रुपये के आसपास होती है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक पान मसाला  समूह ने एक राजनीतिक दल को 200 करोड़ रुपये चंदा दिया था, जो यह बताता है कि जहर बेचने के कारोबार में कितना मुनाफा होता है और अपनी पहुंच, अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए कितनी राशि खर्च की जा सकती है। सरसरी तौर पर जांच करेंगे तो  पता चलेगा कि कई पान मसाला उत्पादकों पर करोड़ों की आबकारी चोरी के मामले दर्ज किए गए हैं।   यह सब तब हुआ जब विभिन्न माध्यमों ने बताया कि पान मसाला उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की वेबसाइट पर भारत में तंबाकू नियंत्रण पर एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ओरल सबम्यूकस फाइब्रोसिस (ओएसएमएफ), जो मुंह के कैंसर से पहले की स्थिति है, खास तौर पर युवाओं के बीच एक नई महामारी के रूप में उभर रहा है। रिपोर्ट में भारत में युवा लोगों के बीच ओएसएमएफ में नाटकीय वृद्धि का कारण गुटका और पान मसाला चबाने को माना गया है। 

भारत में तंबाकू के सेवन का सबसे बड़ा तरीका तंबाकू चबाना है और जिसमें पान मसाला शामिल है। यहां तक कि अगर पान मसाला के एक विशेष पैकेट में तंबाकू नहीं होता है तो यह सुपारी व अन्य उत्तेजक और टैनिन चबाने की लत को बढ़ाता है। इस आदत में तम्बाकू को शामिल करना कुछ ही समय की बात होती है।  

शोधकर्ताओं, ज्योत्सना चांगरानी और फ्रांसिस्का गैनी ने पाया है कि भारत में मुंह के कैंसर की बीमारी लगभग 30 प्रतिशत सुपारी-तंबाकू, करीब 50 फीसदी सुपारी-तंबाकू चबाने और धूम्रपान के संयुक्त उपयोग के कारण होती है। उन्होंने शोध में पाया कि अभी हाल तक पान  और गुटका में तंबाकू के उपयोग को मुंह के कैंसर के लिए एकमात्र कारण के रूप में जिम्मेदार ठहराया गया था। हालांकि हाल ही में सुपारी को मुंह के कैंसर के लिए स्वतंत्र रूप से जिम्मेदार ठहराया गया है। तंबाकू के साथ सुपारी का सेवन गले और भोजन नलिका के कैंसर का कारण बनता है।  बुरी बात यह है कि कैंसर होने के कारणों में पान मसाला अपेक्षाकृत नया घटक है और यह हाल ही में इस घातक गिरोह में शामिल किया गया है। बमुश्किल तीन दशक पहले यह उत्पाद बाजार में आया था और तब से आक्रामक मार्केटिंग के तौर-तरीकों से इसकी बिक्री में लगातार वृद्धि हुई है। इसका मतलब है कि हम ब्रांडों, संकुल, टिन और अन्य स्टॉक कीपिंग यूनिट्स कोड के मिश्रित विविध घटकों के माध्यम से कैंसर के प्रसार के लिए बाजार में सक्रिय हैं।  भारत के दुनिया के दूसरे सबसे बड़े तंबाकू उपभोक्ता होने की पृष्ठभूमि में अमिताभ बच्चन इस बात का आश्वासन दे सकते हैं कि उन्होंने लोगों के स्नेह, चैरिटी और अपने प्रभावी सेलिब्रिटी स्टेट्स का उपयोग उन नौकरियों से ज्यादा जान लेने के लिए किया है जो उन्होंने कथित तौर पर बचाई हैं। इस मुद्दे की वजह से यह मामला इतना बढ़ गया है।  

 एक बड़ी समस्या उस वक्त होती है जब बच्चन प्रभावी ढंग से कहते हैं कि यह एक वैध व्यवसाय है और वे इसे बढ़ावा देने और उसका प्रचार कर अपना पैसा बनाने के हकदार हैं। यह तर्क इस धारणा के विपरीत है कि कोई भी चीज जो कानूनी तौर पर सही है, वह नैतिकता की जरूरतों को पूरा करता है। एक बहुत अधिक अमीर और सुप्रसिद्ध व्यक्ति की आम नागरिकों के प्रति अंसवेदनशीलता नागरिकों के बढ़ते क्रोध का कारण बना है। यह अन्य फिल्मी सितारों के समाज के लिए किए कुछ शानदार कामों को अनदेखा करने वाली हरकत है; और फिर इससे यह संदेश भी जाता है कि पैसा बनाना एक अधिकार है- चाहे उसकी कोई भी कीमत देनी पड़े।  

एक आखिरी समस्या फिल्म 'दीवार' में बच्चन के मशहूर डायलॉग के समान है, जब वह अपने अलग रह रहे भाई और पुलिस अधिकारी से पूछते हैं- 'मेरे पास संपत्ति है, बैंक में पैसा, बंगला है, कार है... तुम्हारे पास क्या है?' फिल्म में उनके भाई का जवाब (मेरे पास मां है) अमर हो गया है। लाखों लोग इसे आज भी याद करते हैं। यह बच्चन ही हैं जो अपनी पंक्तियों को भूल गए।  परदे का यह स्टार वास्तविक जीवन में भी नायक बन सकता है अगर वह इस विज्ञापन से हट जाए और कहे कि पान मसाला मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य और अधिकारों की रक्षा के लिए बॉलीवुड के भीतर एक आंदोलन चलाये। बच्चन ऐसा कर सकते हैं। सवाल यह है कि क्या वे ऐसा करेंगे?

लेखक-जगदीश रत्तनाणी  

समाज की बात Samaj Ki Baat कृष्णधर शर्मा

रविवार, 29 अगस्त 2021

रिश्तों में अब

रिश्तों में अब वह पहले सी गर्माहट कहाँ

अपनों से मिलने की वह छटपटाहट कहाँ

दरवाजों पर नजरें गड़ाये राह तकती बूढ़ी आँखें

अब अपनों के लौटकर आने की वह आहट कहाँ

त्योहारों के बहाने जब घर लौट आते थे परदेशी

अब गाँव देहातों में वह रौनक कहाँ

जगमगाते थे घर जब अपनों की रोशनी से

महकती थी गलियाँ पकवानों की खुशबू से

पकवान तो अब भी बनते ही होंगे शायद

अकेले बैठकर खाने में वह लज्जत कहाँ

व्यस्तता इतनी है कि एक घर में रहकर भी

दूसरे का हाल क्या है यह जानने की फुर्सत कहाँ

मरता भी है कोई गर तो मरे अपनी गरज से

क्यूँ मरा वह जानकर हम करेंगे भी क्या

इतनी बेहयाई तो जानवरों में भी न थी

हम क्योंकर इंसान हुए भला.....

                (कृष्णधर शर्मा 28.8.2021)

#samaj ki baat #समाज की बात #कृष्णधर शर्मा 

 


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

कच्चे खपरैल वाले घरों में

 

कच्चे खपरैल वाले घरों में

रहती थी इतनी जगह

कि छुप सकें तेज बारिश में

गाय, बैलों के साथ-साथ

कुत्ते, बिल्ली, चूहे जैसे

और भी जीव, जंतु

जो नहीं कर सकते अपनी

व्यवस्था स्वयं के लिए

रहती थी इतनी जगह

घर के एक कोने में

कि रुक सके और बना सके

अपने हाथ से अपना भोजन

भिक्षा मांगने वाला गरीब ब्राह्मण

रहती थी इतनी कि

आ जाएं 5-10 मेहमान भी अगर

एक साथ, तो भी नहीं पड़ती थी

माथे पर कोई शिकन

उलटे बढ़ जाता था उत्साह

उन्हें खिलने-पिलाने का

उनकी आवभगत करने का

मगर टीवी और मोबाइल के

इस आधुनिक दौर में

नहीं बची है वह जगह

न घर में और न लोगों के दिलों में

नहीं बचा है वह उत्साह

न वह अपनापन

जो अपने लोगों के लिए होता था

न जाने किसकी नजर लगी है

कि रहना चाहते हैं सब अकेले ही

एक ही घर में अजनबी जैसे...

                 (कृष्णधर शर्मा 20.7.2021)

किसी के मर जाने से

 

रोजी-रोटी कमाने या

किसी जरूरी काम से

घर से निकलकर सड़क पर

चलते हुए अचानक से

किसी तेज रफ़्तार वाहन से

किसी के टकराकर

दुर्घटना में मर जाने से

नहीं रूकती है सड़क

और नहीं रुकते हैं ज्यादा देर तक

सड़क पर चलने वाले भी

मगर रुक जाती हैं कई जिंदगियां

मरने वाले के घर में

जो चलती थीं

मरनेवाले के चलते रहने से

           (कृष्णधर शर्मा 18.7.2021)

शुक्रवार, 25 जून 2021

ये हैं भारत के वो 5 मशहूर चोर बाजार, जहां कम से कम में खरीद सकते हैं कपड़ों से लेकर इलेक्ट्रानिक का सामान

 

आपने कभी चोर बाजार से कोई अपना जरूरी सामान कम से कम दाम में खरीदा है? अगर नहीं, तो ये रहे भारत के 5 ऐसे मशहूर चोर बाजार जहां आप फर्नीचर, कपड़ों से लेकर गाड़ी के पार्ट्स तक खरीद सकते हैं।



भारत में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिन्हें कम से कम दाम में चीजों को खरीदना बहुत पसंद होता है। ऐसे लोगों को अगर आप बोल दें, कि इस मार्किट में आज 50 परसेंट ऑफ मिल रहा है या सेल लगी है, तो वहां कुछ ही घंटों में आप इतनी भीड़ देख लेंगे, जहां पैर रखने की जगह नहीं होती। बहुत से लोग तो ऐसे होते हैं, जो ऑनलाइन में भी डिस्काउंट और सेल तलाश रहे होते हैं। लेकिन क्या आप ये बात जानते हैं? कि भारत में ऐसे कई चोर बाजार हैं, जहां आप चीजों को बहुत ही सस्ते दाम में खरीद सकते हैं। इन बाजारों में आप फर्नीचर, कपड़े, इलेक्ट्रानिक सामान से कार के पार्ट्स भी सस्ते दाम में खरीद सकते हैं। तो चलिए हम आपको उन बाजारों के बारे में बताते हैं -

मटन स्ट्रीट, मुंबई - Mutton Street, Mumbai 


मुंबई में एक मशहूर मटन स्ट्रीट नाम से एक चोर बाजार है, जो कि लगभग 150 साल से यही पर है। पहले इस बाजार का नाम शोर बाजार था, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि ब्रिटिश लोग इस शब्द को सही ढंग से नहीं बोल पाते थे, वो शोर बाजार को चोर बाजर कहते थे। यहां आप विंटेज मूवी पोस्टर्स से लेकर एंटीक फर्नीचर, सेकेंड हैंड कपड़े, लग्जरी ब्रांड के प्रोडक्ट्स की फर्स्ट कॉपी बहुत कम दाम में खरीद सकते हैं। अगर आपका कोई सामान चोरी हुआ है, तो आप यहां आकर अपने सामान को ढूंढ सकते हैं, क्योंकि कई बार लोगों को अपना खोया हुआ सामान यहां मिल 
जाता है।

चिकपेट मार्केट, बेंगलुरु - Chickpet Market, Bengaluru


चिकपेट मार्किट भी बेंगलुरु के सबसे लोकप्रिय चोर बाजार में आती है। चिकपेट एक ऐसा बाजार है, जहां आप कई तरह के आकर्षक सामान खरीद सकते हैं। यहां आपको कई सिल्क की साड़ियां देखने को मिल जाएंगी। इसके अलावा आप यहां बहुत कम दाम में कपड़े और आर्टिफिशियल गहने भी खरीद सकते हैं। अगर आप जिम का सामान खरीदने के लिए कोई सस्ती दूकान खरीद रहे हैं, तो आप यहां जा सकते हैं।

चांदनी चौक, पुरानी दिल्ली - Chandni Chowk, Old Delhi 



दिल्ली के चांदनी चौक बाजार को कौन नहीं जानता, देश के साथ-साथ यहां कई विदेशी लोग भी खरीदारी करने आते हैं। दिल्ली के इस बाजार में सबसे ज्यादा हलचल देखने को मिलती है। ये बाजार सबसे अधिक कपड़े और हार्डवेयर के लिए जाना जाता है। इस मार्किट में कई पुरानी दुकाने हैं, जिनसे आप बहुत ही कम दाम में सामान खरीद सकते हैं। यहां पर मिलने वाला सामान या तो सेकेंड हैंड होता है या फिर थोड़ा डिफेक्टिव होता है। आप बड़े ब्रांड से लेकर छोट-छोट ब्रांड के प्रोडक्ट्स यहां देख सकते हैं। चांदनी चौक के पास दरियागंज बाजार भी है, जहां से आप बहुत ही कम दाम में किताबें खरीद सकते हैं।

सोती गंज मेरठ - Soti Ganj, Meerut


सोती गंज भारत के प्रसिद्ध बाजारों में शामिल है। जो लोग वाहन प्रेमी हैं, उनके लिए ये मार्किट एकदम बेस्ट है। इस मार्किट में आप गाड़ी के सामान जैसे ईंधन टैंक और बहुत सी चीजें सबसे कम दाम में खरीद सकते हैं। सोती गंज, मेरठ में मौजूद है, जहां सस्ते में ऑटोमोबाइल पार्ट्स बेचे जाते हैं। आपको बता दें, दिल्ली/एनसीआर या उत्तरी शहरों से जो भी गाड़ी का सामान या कार चोरी होता है, उसे यही बेचा जाता है। इस बाजार में आप मारुति 800 से लेकर रोल्स रॉयस जैसे महंगी गाड़ियों के सामान तक खरीद सकते हैं।

पुदुपेट मार्केट, चेन्नई - Pudupet Market, Chennai




पुदुपेट मार्केट चेन्नई का एक मशहूर मार्किट है, जो दक्षिण के ऑटोमोबाइल प्रेमियों के लिए फेमस है। इस बाजार में आप स्पेयर ऑटो पार्ट्स से लेकर असेंबल और कस्टमाइज्ड कारों तक हर तरह के ऑटोमोबाइल पार्ट्स देख सकते हैं। ये बाजार बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसा आप बॉलीवुड की फिल्मों में देखते हैं, जिनकी स्टोरी माफिया और तस्करी के आसपास घूमती हैं।

आलेख साभार- नवभारत टाइम्स (फोटो साभार : TOI)
समाज की बात Samaj Ki Baat KD Sharma कृष्णधर शर्मा 




सौर ऊर्जा एवं पम्प स्टोरेज से बनाइए साफ बिजली

 हम सौर ऊर्जा के साथ स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजनाएं लगाएं तो हम छह रुपये में रात की बिजली उपलब्ध करा सकते हैं जो कि थर्मल बिजली के मूल्य के बराबर होगा। इसके अतिरिक्त जब कभी-कभी अकस्मात ग्रिड पर लोड कम-ज्यादा होता है उस समय भी पम्प स्टोरेज परियोजनाओं से बिजली को बनाकर या बंद करके ग्रिड की स्थिरता को संभाला जा सकता है।

आज सम्पूर्ण विश्व बाढ़, तूफान, सूखा और कोविड जैसी समस्याओं से ग्रसित है। ये समस्याएँ कहीं न कहीं मनुष्य द्वारा पर्यावरण में अत्यधिक दखल करने के कारण उत्पन्न हुई दिखती है। इस दखल का एक प्रमुख कारण बिजली का उत्पादन है। थर्मल पावर को बनाने के लिए बड़े क्षेत्रों में जंगलों को काट कर कोयले का खनन किया जा रहा है। इससे वनस्पति और पशु प्रभावित हो रहे हैं। जलविद्युत के उत्पादन के लिए नदियों को अवरोधित किया जा रहा है और मछलियों की जीविका दूभर हो रही है। लेकिन मनुष्य को बिजली की आवश्यकता भी है। अक्सर किसी देश के नागरिकों के जीवन स्तर को प्रति व्यक्ति बिजली की खपत से आंका जाता है। अतएव ऐसा रास्ता निकालना है कि हम बिजली का उत्पादन कर सकें और पर्यावरण के दुष्प्रभावों को भी सीमित कर सकें।  अपने देश में बिजली उत्पादन के तीन प्रमुख स्रोत हैं। पहला है-थर्मल यानी कोयले से निर्मित बिजली। इसमें प्रमुख समस्या यह है कि अपने देश में कोयला सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। हमें दूसरे देशों से कोयला भारी मात्र में आयात करना पड़ रहा है। यदि कोयला आयात करके हम अपने जंगलों को बचा भी लें तो आस्ट्रेलिया जैसे निर्यातक देशों में जंगलों के कटने और कोयले के खनन से जो पर्यावरणीय दुष्प्रभाव होंगे वे हमें भी प्रभावित करेंगे ही। कोयले को जलाने में कार्बन का उत्सर्जन भारी मात्रा में होता है जिसके कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है और तूफान, सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाएं उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही हैं। बिजली उत्पादन का दूसरा स्रोत जल विद्युत अथवा हाइड्रोपावर है। इस विधि को एक साफ-सुथरी तकनीक कहा जाता है चूंकि इससे कार्बन उत्सर्जन कम होता है।  थर्मल पावर में एक यूनिट बिजली बनाने में लगभग 900 ग्राम कार्बन का उत्सर्जन होता है जबकि जलविद्युत परियोजनाओं को स्थापित करने में जो सीमेंट और लोहा आदि का उपयोग होता है उसको बनाने में लगभग 300 ग्राम कार्बन प्रति यूनिट का उत्सर्जन होता है। जलविद्युत में कार्बन उत्सर्जन में शुद्ध कमी 600 ग्राम प्रति यूनिट आती है जो कि महत्वपूर्ण है। लेकिन जलविद्युत बनाने में दूसरे तमाम पर्यावरणीय दुष्प्रभाव पड़ते हैं। जैसे सुरंग को बनाने में विस्फोट किये जाते हैं जिससे जलस्रोत सूखते हैं और भूस्खलन होता है। बराज बनाने से मछलियों का आवागमन बाधित होता और जलीय जैव विविधिता नष्ट होती है। बड़े बांधों में सेडीमेंट जमा हो जाता है और सेडीमेंट के न पहुंचने के कारण गंगासागर जैसे हमारे तटीय क्षेत्र समुद्र की गोद में समाने की दिशा में हैं। पानी को टर्बाइन में मथे जाने से उसकी गुणवत्ता में कमी आती है। इस प्रकार थर्मल और हाइड्रो दोनों ही स्रोतों की पर्यावरणीय समस्या है।

सौर ऊर्जा को आगे बढ़ाने से इन दोनों के बीच रास्ता निकल सकता है। भारत सरकार ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाए हैं। अपने देश में सौर ऊर्जा का उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है। विशेष यह कि सौर ऊर्जा से उत्पादित बिजली का दाम लगभग तीन रुपये प्रति यूनिट आता है जबकि थर्मल बिजली का छह रुपये और जलविद्युत का आठ रुपये प्रति यूनिट। इसलिए सौर ऊर्जा हमारे लिए हर तरह से उपयुक्त है। यह सस्ती भी है और इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी तुलना में कम हैं। लेकिन सौर ऊर्जा में समस्या यह है कि यह केवल दिन के समय में बनती है। रात में और बरसात के समय बादलों के आने जाने के कारण इसका उत्पादन अनिश्चित रहता है। ऐसे में हम सौर ऊर्जा से अपनी सुबह, शाम और रात की बिजली की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं।  इसका उत्तम उपाय है कि 'स्टैंड अलोन' यानि कि 'स्वतंत्र' पम्प स्टोरेज विद्युत परियोजनायें बनाई जाएं। इन परियोजनायों में दो बड़े बनाये जाते हैं। एक तालाब ऊंचाई पर और दूसरा नीचे बनाया जाता है। दिन के समय जब सौर ऊर्जा उपलब्ध होती है तब नीचे के तालाब से पानी को ऊपर के तालाब में पम्प करके रख लिया जाता है। इसके बाद सायंकाल और रात में जब बिजली की जरूरत होती है तब ऊपर से पानी को छोड़ कर बिजली बनाते हुए नीचे के तालाब में लाया जाता है। अगले दिन उस पानी को पुन: ऊपर पंप कर दिया जाता है। वही पानी बार-बार ऊपर-नीचे होता रहता है। इस प्रकार दिन की सौर ऊर्जा को सुबह, शाम और रात की बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है।  विद्यमान जलविद्युत परियोजनाओं को ही पम्प स्टोरेज में ही तब्दील किया जा सकता है। जैसे टिहरी बांध के नीचे कोटेश्वरर जलविद्युत परियोजनाओं को पम्प स्टोरेज में परिवर्तित कर दिया गया है। दिन के समय इस परियोजना से पानी को नीचे से ऊपर टिहरी झील में वापस डाला जाता है और रात के समय उसी टिहरी झील से पानी को निकाल कर पुन: बिजली बनाई जाती है। विद्यमान जलविद्युत परियोजनाओं को पम्प स्टोरेज में परिवर्तित करके दिन की बिजली को रात की बिजली में बदलने का खर्च मात्र 40 पैसे प्रति यूनिट आता है। इसलिए तीन रुपये की सौर ऊर्जा को हम 40 पैसे के अतिरिक्त खर्च से सुबह शाम की बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं। लेकिन इसमें समस्या यह है कि टिहरी और कोटेश्वर जल विद्युत परियोजनाओं से जो पर्यावरणीय दुष्प्रभाव होते हैं वे तो होते ही रहते हैं। कुएं से निकले और खाई में गिरे। सौर ऊर्जा को बनाया लेकिन उसे रात की बिजली बनाने में पुन: नदियों को नष्ट किया।

इस समस्या का उत्तम विकल्प यह है कि हम स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजना बनाएं जैसा ऊपर बताया गया है। इन परियोजना को नदी के पाट से अलग बनाया जा सकता है। किसी भी पहाड़ के ऊपर और नीचे उपयुक्त स्थान देख कर दो तालाब बनाये जा सकते हैं। ऐसा करने से नदी के बहाव में व्यवधान पैदा नहीं होगा। ऐसी स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजना से दिन की बिजली को रात की बिजली में परिवर्तित करने में मेरे अनुमान से तीन रुपये प्रति यूनिट का खर्चा आएगा। अत: यदि हम सौर ऊर्जा के साथ स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजनाएं लगाएं तो हम छह रुपये में रात की बिजली उपलब्ध करा सकते हैं जो कि थर्मल बिजली के मूल्य के बराबर होगा। इसके अतिरिक्त जब कभी-कभी अकस्मात ग्रिड पर लोड कम-ज्यादा होता है उस समय भी पम्प स्टोरेज परियोजनाओं से बिजली को बनाकर या बंद करके ग्रिड की स्थिरता को संभाला जा सकता है। इसलिए हमें थर्मल और जल विद्युत के मोह को त्यागकर सौर एवं स्वतंत्र पम्प स्टोरेज के युगल को अपनाना चाहिये। जंगल और नदियां देश की धरोहर और प्रकृति एवं पर्यावरण की संवाहक हैं। इन्हें बचाते हुए बिजली के अन्य विकल्पों को अपनाना चाहिए।

भरत झुनझुनवाला  (साभार- देशबंधु)

समाज की बात Samaj Ki Baat KD Sharma कृष्णधर शर्मा 

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

जहरीली 'जीएम' फसलों पर जरूरी है नियंत्रण

 'अमेरिका की माताएं' (मॉम्स् एक्रॉस अमेरिका) की संस्थापक जेन हनीकट ने अदालत के इस निर्णय का स्वागत करते हुए मानवता के लिए व धरती पर पनप रहे सभी तरह के जीवन के लिए इसे एक जीत बताया। फ्रांस के पर्यावरण मंत्री ब्रूने पायरसन ने इस 'ऐतिहासिक निर्णय' का स्वागत किया। भारत सहित सभी देशों को 'जीएम' फसलों, रासायनिक खरपतवार-नाशकों, जंतुनाशकों व कीटनाशकों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर दुष्परिणामों के बारे में व्यापक जन-चेतना का अभियान चलाना चाहिए, जिससे इनके बारे में सही व प्रामाणिक जानकारी किसानों व आम लोगों तक पंहुच सके। कृषि व खाद्य क्षेत्र में 'जेनेटिक इंजीनियरिंग' की टैक्नॉलॉजी मात्र चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथ में केंद्रित है।  

यदि कोई अवैध कार्रवाई हो रही हो तो सरकार का कर्तव्य है कि इस पर तुरंत रोक लगाए। पर हाल में कुछ लोगों ने कहा है कि सरकार कानून ही इस तरह बदल दे कि जो अवैध है वह वैध नजर आने लगे। यह अजीब स्थिति 'जीएम' (जेनेटिकली मोडीफाईड या जीन-संवर्धित) फसलों के संदर्भ में देखने में आई है। अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे चुके हैं कि स्वास्थ्य, पर्यावरण, जैव-विविधता, कृषि व खाद्य-व्यवस्था के लिए 'जीएम' फसलें बहुत खतरनाक हैं। इसके बावजूद 'जीएम' बीजों व इनसे जुड़ी रासायनिक दवाओं को बढ़ाने वाली कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री को तेजी से बढ़ाने के लिए इनका प्रचार-प्रसार करती रही हैं व अपनी अपार धन-दौलत के बल पर उन्होंने अपने अनेक समर्थक उत्पन्न कर लिए हैं। हाल में इन लोगों ने सरकार को विचित्र सलाह देते हुए कहा है कि कुछ 'जीएम' फसलों को अवैध रूप से भारत के खेतों में फैलाया जा रहा है जिसे रोकने के लिए सरकार को चाहिए कि वह इन 'जीएम' फसलों को वैधता दे दे। 

यह अजीब तर्क है कि किसी अवैधता को रोकने के लिए उस अवैधता को वैध कर दो, पर 'जीएम' फसलों का सारा ताना-बाना ही इस तरह के मिथ्या व भ्रामक प्रचार के बल पर खड़ा हुआ है।  'जीएम' फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा उनका यह असर 'जेनेटिक प्रदूषण' के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को 'इंडिपेंडेंट साईंस पैनल' (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। इस पैनल में एकत्रित हुए अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने 'जीएम' फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया है। इसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है 'जीएम' फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं व ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर 'ट्रान्सजेनिक प्रदूषण' से बचा नहीं जा सकता। अत: 'जीएम' फसलों व 'गैर-जीएम' फसलों का सह-अस्तित्व नहीं हो सकता है।

 सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 'जीएम' फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत ऐसे पर्याप्त प्रमाण मिल चुके हैं जिनसे इन फसलों की सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। 'जीएम' फसलों को अब दृढ़ता से खारिज कर देना चाहिए। इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा व गंभीर दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी क्षति-पूर्ति नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु-प्रदूषण व जल-प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है, पर जेनेटिक-प्रदूषण एक बार पर्यावरण में चले जाने पर हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया है या उनका अनुसंधान बाधित किया गया है, क्योंकि उनके अनुसंधान से 'जीएम' फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। 

इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से 'जीएम' फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक 'जेनेटिक रुलेट् (जुआ)' के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। 'जीएम' फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है व जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है। हाल ही में देश के जीनेटिक साइंस के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर पुष्प भार्गव का निधन हुआ है। वे 'सेण्टर फॉर सेल्यूेलर एंड मॉलीक्यूलर बॉयोलाजी, हैदराबाद' के संस्थापक निदेशक व 'नेशनल नॉलेज कमीशन' के उपाध्यक्ष रहे थे। उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियां बहुचर्चित रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने प्रो. पुष्प भार्गव को 'जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी' (जीईएसी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। प्रो. पुष्प भार्गव ने बहुत प्रखरता से 'जीएम' फसलों का बहुत स्पष्ट और तथ्य आधारित विरोध किया था। 

अंग्रेजी दैनिक 'हिंदुस्तान टाईम्स' के अपने लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 अनुसंधान प्रकाशनों ने 'जीएम' फसलों के मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर हानिकारक असर को स्थापित किया है। ये सभी प्रकाशन ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी के बारे में कभी, कोई सवाल नहीं उठा है। प्रो. भार्गव ने आगे लिखा कि दूसरी ओर 'जीएम' फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने 'कॉन्फ्लिओक्ट ऑफ इंटरेस्ट' स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं। 'जीएम' फसलों के समर्थक प्राय: कहते हैं कि इनको वैज्ञानिकों का समर्थन मिला है, पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधानों का आंकलन कर स्पष्ट बता दिया था कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने 'जीएम' फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया था कि जिन वैज्ञानिकों ने 'जीएम' को समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी-न-किसी स्तर पर 'जीएम' बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से किसी-न-किसी रूप में जुड़े या प्रभावित रहे हैं। कुछ 'जीएम' फसलों के साथ खतरनाक खरपतवार-नाशकों को जोड़ दिया गया है। ऐसा 'ग्लाईफोसेट' नामक एक खरपतवार-नाशक स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक पाया गया है। हाल ही में कैलिफोर्निया (अमरीका) की एक अदालत ने अपने महत्वापूर्ण निर्णय में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को जानसन नामक व्यक्ति को बहुत अधिक क्षतिपूर्ति राशि देने को कहा है। यह कंपनी 'ग्लाईफोसेट' नामक खतरनाक रसायन बनाती है। जानसन का कार्य स्कूलों के मैदानों की देख-रेख था। उसने इन खरपतवार-नाशकों का छिड़काव वर्षों तक किया जिससे उसे रक्त-कोशिका का एक ऐसा गंभीर कैंसर हो गया था जिसे 'नॉन-हाजकिन लिंफोमा' कहा जाता है। इस मुकदमे के दौरान यह भी देखा गया कि इस खरपतवार-नाशक को किसी-न-किसी तरह सुरक्षित सिद्ध कर पाने के लिए कंपनी ने स्वयं तथ्य गढ़े और फिर किसी विशेषज्ञ का नाम उससे जोड़ दिया। यह इसके बावजूद किया गया कि 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' (डब्यूेषज एचओ) की कैंसर से जुडी अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान एजेंसी (आईएआरसी) ने वर्ष 2015 में ही इस खरपतवार-नाशक से होने वाले कैंसर की संभावना के बारे में बता दिया था। भारत में भी इसका उपयोग होता है। 'ग्लाईफोसेट' का उपयोग 'जीएम' फसलों के साथ नजदीकी से जुड़ा रहा है और इसके गंभीर खतरों के सामने आने से 'जीएम' फसलों से जुड़े खतरों की पुष्टि होती है।

 विशालकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जैसे-'मानसेंटो' व 'बेयर' (जो बहुत बड़े सौदे के बाद एक हो गई हैं) बीज और कृषि रसायनों के व्यवसाय को साथ-साथ कर रही हैं व कई फसलों (विशेषकर 'जीएम' फसलों) के बीजों के साथ ही उनके लिए उपयुक्त खरपतवार-नाशकों, कीटनाशकों आदि को भी बेचा जाता है। इससे कंपनियों की कमाई बहुत तेजी से बढ़ती है और किसानों का खर्च और कर्ज उससे भी तेजी से बढ़ते हैं। वकीलों जिस टीम ने जानसन की ओर से मुकदमा लड़ा था उनमें एडवर्ड केनेडी भी थे जिनके इसी नाम के विख्यात सीनेटर पिता थे। एडवर्ड केनेडी ने मुकदमे में जीत के बाद कहा कि इस तरह के उत्पादों की बिक्री के कारण न केवल बहुत से लोग गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से त्रस्त हो रहे हैं, अपितु अनेक अधिकारियों को भ्रष्ट बनाया जा रहा है, प्रदूषण से बचाने वाली एजेंसियों पर नियंत्रण किया जा रहा है व विज्ञान को झुठलाया जा रहा है। 'अमेरिका की माताएं' (मॉम्स् एक्रॉस अमेरिका) की संस्थापक जेन हनीकट ने अदालत के इस निर्णय का स्वागत करते हुए मानवता के लिए व धरती पर पनप रहे सभी तरह के जीवन के लिए इसे एक जीत बताया। फ्रांस के पर्यावरण मंत्री ब्रूने पायरसन ने इस 'ऐतिहासिक निर्णय' का स्वागत किया। भारत सहित सभी देशों को 'जीएम' फसलों, रासायनिक खरपतवार-नाशकों, जंतुनाशकों व कीटनाशकों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर दुष्परिणामों के बारे में व्यापक जन-चेतना का अभियान चलाना चाहिए, जिससे इनके बारे में सही व प्रामाणिक जानकारी किसानों व आम लोगों तक पंहुच सके। कृषि व खाद्य क्षेत्र में 'जेनेटिक इंजीनियरिंग' की टैक्नॉलॉजी मात्र चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथ में केंद्रित है। इनका उद्देश्य 'जेनेटिक इंजीनियरिंग' के माध्यम से दुनियाभर की कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ। इन तथ्यों व जानकारियों को ध्यान में रखते हुए सभी 'जीएम' फसलों का विरोध जरूरी है। इसके साथ अवैध ढंग से हमारे देश में जिन 'जीएम' खाद्य उत्पादों का आयात होता रहा है, उस पर रोक लगाना भी जरूरी है।  

भारत डोगरा  (साभार- देशबंधु) 

समाज की बात Samaj Ki Baat कृष्णधर शर्मा KD Sharma

बड़ी मानवीय त्रासदी बन सकती है म्यांमार की स्थिति

  हाल के समय में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जब आंतरिक हिंसा बढ़ने पर व गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होने पर खाद्य संकट भी उत्पन्न हो गया व स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी अनिवार्य सुविधाएं भी ध्वस्त हो गईं।

हाल के समय में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जब आंतरिक हिंसा बढ़ने पर व गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होने पर खाद्य संकट भी उत्पन्न हो गया व स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी अनिवार्य सुविधाएं भी ध्वस्त हो गईं। अत: म्यांमार को इस स्थिति से बचाने के लिए अभी से समुचित प्रयासों को अपनाना चाहिए। एक पड़ोसी देश होने के नाते और इस क्षेत्र की एक बड़ी ताकत होने के नाते भारत का भी कर्तव्य है कि वह इन प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए ताकि म्यांमार में लोकतंत्र की वापसी हो सके, हिंसा पर नियंत्रण लग सके व आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि भी सुनिश्चित हो सके। म्यांमार (बर्मा) में जिस तरह से बड़े टकराव की स्थिति सैन्य बल और लोकतांत्रिक ताकतों के बीच आ गई है, उसका कोई आसान व शीघ्र समाधान अभी नजर नहीं आ रहा है। 

यदि भारी बहुमत से जीत कर आए राजनीतिक दल से सरकार बनाने का अधिकार छीना जाए और उसके लोकप्रिय नेताओं को जेल में डाल दिया जाए तो उसके समर्थकों का सड़क पर उतरना निश्चित ही है और वही हो रहा है। यदि सेना को यही सब कुछ करना है तो चुनाव करवाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। दूसरी ओर इतना जोर-जुल्म करने के बाद सेना को यह भी आसान नहीं लग रहा है कि लोकतंत्र की ओर शीघ्र वापसी की जाए। दो महीने में ही 500 लोकतंत्र प्रहरियों को मार देना भयानक है। जहां एक ओर हाल ही में आरंभ हुआ संघर्ष लंबा खिंच सकता है, वहां अल्पसंख्यक समुदायों के अनेक संघर्ष म्यांमार में काफी समय से चलते रहे हैं। मौजूदा अराजकता के दौर में वे नए सिरे से जोर पकड़ सकते हैं और ऐसे हमलों के समाचार हाल में मिले भी हैं। इस तरह कई स्तरों पर हिंसा और दमन का दौर निकट भविष्य में म्यांमार में हावी हो सकता है और गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। ऐसी स्थिति का अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ना स्वाभाविक है। 

ऐसी अशान्त और अस्थिर स्थिति में स्वाभाविक है कि घरेलू और बाहरी निवेश बहुत कम होगा। तिस पर यदि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका जैसे देशों ने प्रतिबंध सख्त किए तो व्यापार पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। हालांकि चीन जैसे कुछ बड़े देशों का बाजार म्यांमार के लिए खुले रहने की पूरी संभावना है, पर जरूरी है कि निर्यात के स्थान कम होने पर निर्यातों से प्राप्त होने वाले मूल्य पर कुछ असर तो पड़ेगा ही।  इसका दूसरा पक्ष यह है कि आयात के लिए विदेशी मुद्रा भी कम उपलब्ध होगी।  हिंसा व  दमन के बढ़ते दौर में सैन्य शासकों को सैन्य सामग्री के अधिक आयात की जरूरत पड़ेगी। धनी तबके भी अपने लिए आयात करते ही रहेंगे। अत: आयात कम करने की क्षमता का असर आम लोगों की जरूरतों की आपूर्ति पर अधिक पड़ सकता है। 

दूसरी ओर स्थानीय स्तर के औद्योगिक और कृषि उत्पादन पर व कुछ जरूरी सेवाओं पर भी हिंसा के दौर में प्रतिकूल असर पड़ने की पूरी संभावना है। इस स्थिति में आजीविका के स्रोत भी कम होंगे व गरीबी बढ़ेगी। जहां एक ओर अनेक आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति कम होगी वहां बहुत से लोगों की क्रय शक्ति में भी कमी आएगी। इन दोनों के मिले-जुले असर से लोगों की जीवन की कठिनाईयां बहुत बढ़ सकती हैं। वैसे साधारणत: म्यांमार को कृषि निर्यातक की दृष्टि से अतिरिक्त उत्पादन का देश माना जाता है। यहां की अधिकांश जनसंख्या कृषि से जुड़ी रही है। चावल मुख्य भोजन है। चावल के निर्यातक देश के रूप में भी म्यांमार की एक बड़ी पहचान बनी हुई है। इस आधार पर यह दावा किया जात है कि यहां भूख, अल्प-पोषण या कुपोषण की समस्या नहीं है या कम है। पर जरूरी नहीं है कि ऐसा हो। 

कृषि निर्यात की अधिकता की स्थिति में भी कई देशों में भूख व कुपोषण की समस्या देखी गई है। कुछ समुदायों व स्थानों में यह समस्या अधिक हो सकती है जो भेदभाव का शिकार हैं। म्यांमार की हकीकत भी ऐसी स्थिति के नजदीक की है। इस स्थिति में यदि हिंसा का प्रसार अधिक होता है तो कृषि उत्पादन कम हो सकता है पर यह उत्पादन कम होने के बावजूद निर्यात अधिक बनाए रखने के प्रयास हो सकते हैं क्योंकि शासक वर्ग को आयातों के लिए विदेशी मुद्रा चाहिए। दूसरी ओर सैनिकों व सेना को समर्थन करने वाले संगठनों के लिए भी पर्याप्त खाद्य उपलब्धि काफी कम हो सकती है। विशेषकर जो क्षेत्र व स्थान विद्रोहियों के या विपक्षियों के गढ़ माने जाते हैं वहां के लिए खाद्य व अन्य आवश्यक उत्पादों की स्थिति कम हो सकती है। ऐसी स्थिति में अनेक स्थानों के लिए जरूरी दवाओं व स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धि सामान्य स्थिति से कहीं कम हो सकती है व इसका बहुत घातक असर पड़ सकता है। यदि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कड़े प्रतिबंध हो तो दवाओं की कमी और विकट हो सकती है। यदि सकारात्मक पहलू को देखें तो म्यांमार के पास तेल व गैस का अच्छा भंडार है, अन्य मूल्यवान खनिज हैं जिनसे अर्थव्यवस्था कुछ समय के लिए संभल सकती है पर प्रतिबंधों की स्थिति में इनसे आय अर्जन में भी कमी आ सकती है। 

इन सभी विकट संभावनाओं से बचने के लिए जरूरी है कि अपेक्षाकृत आरंभिक स्थिति में ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर यहां अमन-शांति व लोकतंत्र स्थापना के प्रयास तेज किए जाएं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण समुदायों को चाहिए कि कठिन समय में वे खाद्य उत्पादन बढ़ाने के अधिक आत्म-निर्भर उपायों को अपनाएं ताकि हर स्थिति में कम से कम खाद्य सुरक्षा को बनाए रखा जा सके। विश्व खाद्य कार्यक्रम को भी खाद्य सहायता पहुंचाने के लिए म्यांमार की बदलती स्थिति पर नजर रखनी चाहिए। डाक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों के कुछ संगठन हिंसा-प्रभावित क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाते रहे हैं। उन्हें भी म्यांमार की जरूरतों को निकट भविष्य में ध्यान में रखना होगा। उम्मीद तो यह जरूर रखनी चाहिए कि निकट भविष्य में संकट सुलझ जाए, पर अधिक विकट स्थितियों में सहायता पहुंच सके इसकी तैयारी भी अभी से करनी चाहिए। 

हाल के समय में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जब आंतरिक हिंसा बढ़ने पर व गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होने पर खाद्य संकट भी उत्पन्न हो गया व स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी अनिवार्य सुविधाएं भी ध्वस्त हो गईं। अत: म्यांमार को इस स्थिति से बचाने के लिए अभी से समुचित प्रयासों को अपनाना चाहिए। एक पड़ोसी देश होने के नाते और इस क्षेत्र की एक बड़ी ताकत होने के नाते भारत का भी कर्तव्य है कि वह इन प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए ताकि म्यांमार में लोकतंत्र की वापसी हो सके, हिंसा पर नियंत्रण लग सके व आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि भी सुनिश्चित हो सके। 

भारत डोगरा (साभार-देशबंधु)

समाज की बात Samaj Ki Baat कृष्णधर शर्मा  KD Sharma

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

मंगल ग्रह का पानी उड़ा नहीं, वहीं 4 अरब साल से सतह की नीचे छुपा है

 Martian waters मंगल ग्रह को धरती से मिलता-जुलता ग्रह माना जाता है, साथ ही वैज्ञानिकों यह भी उम्मीद है कि मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना हो सकती है। 

मंगल ग्रह को लेकर किए गए अभी तक सभी शोधों व वैज्ञानिक परीक्षणों में यह खुलासा हुआ है कि अरबों साल पहले मंगल ग्रह पर बड़ी तादाद में सागर और झीलें हुआ करती थी, लेकिन फिलहाल ये ग्रह पूरी तरह से सूख गया है और एक चट्टानी ग्रह बन गया है। साथ ही वैज्ञानिक यह भी मानते आए हैं कि मंगल ग्रह से पानी अब अंतरिक्ष में उड़ गया है। 

लेकिन अब NASA द्वारा वित्तपोषित एक अध्ययन के मुताबिक मंगल ग्रह से पानी कहीं नहीं गया, बल्कि ग्रह की ऊपरी सतह में खनिजों के बीच ही फंसा हुआ है. मंगल ग्रह की ऊपरी सतह पर ही मौजूद है पानी 'साइंस' पत्रिका में नए शोधपत्र की मुख्य लेखिका ईवा स्केलर ने कहा कि मंगल ग्रह की परी सतह पानी भरे खनिजों से बनी है, ऐसे खनिज, जिनके क्रिस्टल स्ट्रक्चर में ही पानी है। 



स्केलर के मॉडल से संकेत मिलता है कि मंगल ग्रह पर करीब 30 से 99 फीसदी पानी इन्हीं खनिजों में फंसा हुआ है। शोध के मुताबिक मंगल ग्रह पर इतना पानी था कि वह लगभग 100 से 1,500 मीटर (330 से 4,920 फुट) समुद्र से ही समूचे ग्रह को कवर कर सकता था। मंगल ग्रह ने अपना अपना मैग्नैटिक फील्ड खो दिया था इस कारण से मंगल ग्रह का पर्यावरण धीरे-धीरे समाप्त हो गया।

 पूरा पानी अंतरिक्ष में नहीं उड़ा शोधकर्ताओं का दावा है कि मंगल ग्रह का पूरा पानी अंतरिक्ष में नहीं उड़ा है। नए अध्ययन के लेखकों के अनुसार कुछ पानी जरूर खत्म हुआ होगा, या गायब हो गया होगा, लेकिन अधिकतर पानी ग्रह पर ही है। 

मार्स रोवरों द्वारा किए गए ऑब्जर्वेशनों और ग्रह के उल्कापिंडों का इस्तेमाल कर टीम ने पानी के अहम हिस्से हाइड्रोजन पर फोकस किया है। हाइड्रोजन के अलग-अलग तरह के अणु होते हैं। अधिकतर के न्यूक्लियस में सिर्फ एक प्रोटॉन होता है, लेकिन बहुत कम (लगभग 0.02 प्रतिशत) के भीतर एक पेरोटॉन के साथ एक न्यूट्रॉन भी होता है, जिसकी वजह से उनका वजन बढ़ जाता है। इन्हें ड्यूटेरियम या 'भारी' हाइड्रोजन के नाम से जाना जाता है। हल्के अणु ग्रह के वातावरण को तेज गति से छोड़ जाते हैं, अधिकतर पानी अंतरिक्ष में चले जाने की वजह से कुछ भारी ड्यूटेरियम पीछे छूट गए।

साभार-नई दुनिया 

समाज की बात samaj ki baat कृष्णधर शर्मा  KD Sharma

स्मॉग टॉवर : क्या यही है राइट च्वाइस ?

 सारा विवाद इसी को लेकर है कि स्मॉग टॉवर वायु प्रदूषण की समस्या का हल नहीं है और यह प्रदूषण उत्पन्न करने वाले कारकों पर कोई प्रभाव नहीं डालता है। 

बीते महीने के अंत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण पर सुनवाई करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्मॉग टॉवर न लगने पर कड़ी नाराजगी जताई थी। शीर्ष अदालत ने पूछा था कि उसके आदेश के बावजूद अभी तक टॉवर क्यों नहीं लगे। शीर्ष अदालत की फटकार पर सरकार की तरफ से अदालत को सही तकनीकी जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई बल्कि मीडिया में जो खबरें आईं उससे यही प्रतीत होता है कि सरकार वायु प्रदूषण की समस्या की असल जड़ से अदालत और जनता का ध्यान हटाना कर स्मॉग टॉवर में उलझाना चाहती है। 

सरल शब्दों में समझें तो स्मॉग टॉवर एक तरह से बहुत बड़ा एयर प्योरीफायर होता है, जो वैक्यूम क्लीनर की तरह धूल कणों को हवा से खींच लेता है। आमतौर पर स्मॉग टॉवर में एयर फिल्टर की कई परतें फिट होती हैं, जो प्रदूषित हवा, जो उनके माध्यम से गुजरती है, को साफ करती है। विशेषज्ञों के मुताबिक एक स्मॉग टॉवर 50 मीटर की परिधि की वायु को साफ कर सकता है। 

स्मॉग टॉवर का आईडिया मूलतः चीन से आया है। वर्षों से वायु प्रदूषण से जूझ रहे चीन के पास अपनी राजधानी बीजिंग में और उत्तरी शहर शीआन में दो स्मॉग टॉवर हैं। पूर्व क्रिकेटर और पूर्वी दिल्ली के भाजपा सांसद गौतम गंभीर ने इस वर्ष 3 जनवरी को राष्ट्रीय राजधानी के लाजपत नगर में एक प्रोटोटाइप एयर प्यूरीफायर का उद्घाटन किया। उन्होंने ट्वीट किया, “मेरा नाम गौतम गंभीर है। मैं बात करने में विश्वास नहीं करता, मैं जीवन को बदलने में विश्वास करता हूँ! सतत समर्थन के लिए माननीय गृह मंत्री अमित शाह जी को धन्यवाद।” 

अब इन स्मॉग टॉवर को लेकर विवाद उठ रहे हैं। इसी महीने सर्वोच्च न्यायालय ने वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए दिल्ली में स्मॉग टॉवर स्थापित करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की एक याचिका को खारिज कर दिया। याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी थी कि इससे चीनी कंपनियों को पैसा मिलेगा और यह साबित करने के लिए कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है कि स्मॉग टॉवर प्रदूषण को नियंत्रित कर सकता है। इसके इतर काउंसिल ऑफ एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर (CEEW) के अनुसार राजधानी दिल्ली की हवा को साफ करने के लिए कम से कम लगभग पौने दो करोड़ रूपये की लागत वाले पच्चीस लाख स्मॉग टावरों की जरूरत होगी।

 दरअसल सारा विवाद इसी को लेकर है कि स्मॉग टॉवर वायु प्रदूषण की समस्या का हल नहीं है और यह प्रदूषण उत्पन्न करने वाले कारकों पर कोई प्रभाव नहीं डालता है। असल बात यह है कि जब तक प्रदूषण फैलाने वाले स्रोत बंद नहीं किए जाएंगे, तब तक स्मॉग टॉवर जैसे टोटके सिर्फ जन-धन की हानि करते रहेंगे। वायु प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत कल कारखाने और थर्मल पॉवर प्लांट हैं। प्रदूषण उत्पन्न करने वाले इन असल स्रोतों पर कोई आंच नहीं आए इसी लिए कभी पराली जलाने को वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जा ता ह और कभी कोई और तर्क दे दिए जाते हैं।   

पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर 2015 में बिजली संयंत्रों के लिए नए उत्सर्जन नियमों की पुष्टि की थी। उन्हें लागू करने की मूल समय सीमा पहले दिसंबर 2017 थी, लेकिन फिर दिसंबर 2019 तक आगे धकेल दी गई और बाद में इसे दिसंबर 2022 तक कंपित कार्यान्वयन में बदल दिया गया। इधर इस वर्ष के शुरू में आई एक खबर पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है। 

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के हवाले से मीडिया में रिपोर्ट्स प्रकाशित हुई थीं कि भारत के आधे से अधिक कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों और 94% कोयला-संचालित इकाइयों में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए रेट्रोफिट उपकरण का आदेश दिया गया था। लेकिन नई दिल्ली के आसपास कोयले से चलने वाले उद्योग भारतीय अधिकारियों की इस चेतावनी कि अगर उन्होंने साल के अंत तक सल्फर ऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए उपकरण नहीं लगाए तो इन उद्योगों को बंद कर दिया जाएगा, के बावजूद ये संयंत्र बिना उपकरणों के चल रहे थे। 

एक तरफ तो दिल्ली में स्मॉग टॉवर लगाकर वायु प्रदूषण पर लगाम कसने के टोटके किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार कोयला क्षेत्र को निजी खनन के लिए खोलकर देश की हवा को और अधिक जहरीला बनाने के इंतजाम कर रही है। जरूरत इस बात की थी कि जो भी याचिकाकर्ता सर्वोच्च न्यायालय में यह दलील देने गए थे कि स्मॉग टॉवर से चीन की इकॉनॉमी को पायदा होगा, वह शीर्ष अदालत के सामने सही तर्क प्रस्तुत करते कि स्मॉग टॉवर समस्या का समाधान नहीं है और यह सिर्फ जनता की मेहनत की गाढ़ी कमाई की बर्बादी है, इसलिए इससे बहुत कम खर्च पर कोयला-संचालित इकाइयों में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए रेट्रोफिट उपकरण लगाने पर सख्ती की जाए। 

(अमलेन्दु उपाध्याय  साभार-देशबंधु )

समाज की बात samaj ki baat कृष्णधर शर्मा KDSharma

शनिवार, 9 जनवरी 2021

ऊर्जा-क्षेत्र में सौर ऊर्जा की दावेदारी

 'राष्ट्रीय विद्युत नीतिके अनुसार अगले दशक में विद्युत की बढ़ती मांग को 2027 तक दो लाख 75 हजार मेगावाट नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा किया जा सकता हैइसलिए कोयले के नये संयंत्रों की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसी परिस्थितियों में बिजली की मांग और अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने के लिए आवश्यक हो गया है कि नवीकरणीय ऊर्जा में निरंतर वृद्धि करते हुए विद्युत उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता कम की जाए। वैसे भीवैश्विक एनजीओ 'ग्रीन पीसके अनुसार कोयले से उत्पन्न बिजलीसौर और पवन ऊर्जा से 65 फीसदी महंगी है।

सौर ऊर्जा में सस्ती टेक्नालॉजी और नवाचार ने पूरी दुनिया में बिजली का परिदृश्य बदल दिया है। सन् 2010 में भारत का 'राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशनशुरू किया गया था। उस समय सौर ऊर्जा से मात्र 17 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता था। बीस जून 2020 तक सौर बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता 35 हजार 739 मेगावाट हो गई है। वर्तमान केंद्र सरकार ने 2022 तक एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा, 60 हजार मेगावाट पवन ऊर्जा और 15  हजार मेगावाट  अन्य परम्परागत क्षेत्रों से बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा है। देश के पांच प्रमुख राज्यों में सोलर ऊर्जा का उत्पादन इस प्रकार है (मेगावाट में) कर्नाटक (7100), तेलगांना (5000), राजस्थान (4400), गुजरात (2654)। मध्यप्रदेश भी इस सूची में जल्द ही शामिल होने वाला है।

 एक नवम्बर 2020 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश में विभिन्न स्रोतों से मिलने वाली बिजली (मेगावाट में) इस प्रकार है - राज्य थर्मल (5400), राज्य जल विद्युत (917), संयुक्त उपक्रम एवं अन्य (2456), केंद्रीय क्षेत्र  (5055), निजी क्षेत्र (1942), अल्ट्रा-मेगा पावर प्रोजेक्टस  (1485) एवं नवकरणीय ऊर्जा (3965) अर्थात 21 हजार 220 मेगावाट प्रतिदिन की क्षमता है। दिसम्बर 2020 में राज्य में अधिकतम बिजली की मांग 15 हजार मेगावाट दर्ज की गई थीजबकि वर्ष भर में औसत मांग लगभग हजार मेगावाट है। 

इसके अतिरिक्त रीवा में 750 मेगावाट की 'अल्ट्रा मेगा सोलर प्लांटशुरू हो चुका है। एक सरकारी विज्ञप्ति के मुताबिक इससे हर साल 15.7 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को रोका जाएगाजो दो करोड़ 60 लाख पेड़ों के लगाने के बराबर है। मध्यप्रदेश के विभिन्न अंचलों में सोलर पावर प्लांट (मेगावाट में) कीआगर (550), नीमच (500), मुरैना(1400), शाजापुर(450), छतरपुर(1500) औरओंकारेश्व र (600) परियोजनाएंअर्थात कुल पांच हजार मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं।        

भारत में तीन करोड़ कृषि पम्प हैं जिनमें से एक करोड़ पम्प डीजल से चलाए जाते हैं। इन किसानों को  'ऊर्जा सुरक्षा उत्थान महा-अभियान' (कुसुम) योजना के तहत जो सोलर पम्प दिए जा रहे हैंउनसे कुल 28 हजार 250 मेगावाट बिजली पैदा होगी। मध्यप्रदेश सरकार का दावा है कि अब तक 14 हजार 250 किसानों के लिए सोलर पम्प स्थापित किये जा चुके हैं। तीन सालों में दो लाख पम्प और लगाने का लक्ष्य है। दूसरी ओरमध्यप्रदेश में अब तक 30 मेगावाट क्षमता के सोलर रूफ-टॉप संयत्र स्थापित किये जा चुके हैं। इस साल 700 सरकारी भवनों पर 50 मेगावाट के सोलर रूफ-टॉप और लगेंगे। भोपाल के निकट मंडीदीप में 400 औद्योगिक इकाईयों के लिए 32 मेगावाट क्षमता की सोलर रूफ-टॉप परियोजनाओं पर कार्य किया जा रहा है।

जबलपुर शहर की 'गन-कैरिज फैक्ट्री' (जीसीएफ)  और 'व्हीटकल फैक्ट्री' (वीएफजे) में 10-10 मेगावाट के सोलर प्लांट लगाए गए हैं। इन दोनों जगहों से बिजली का उत्पादन और वितरण किया जा रहा है। अब जितनी बिजली इन प्लांट से बनती हैउतना क्रेडिट इनके बिल में किया जा रहा है। ऐसे में न केवल 'वीएफजेऔर 'जीसीएफ,' बल्कि 'आयुध निर्माणीखम्हरिया' (ओएफके)तथा 'ग्रे-आयरनफाउंड्री' (जीआइएफ) को भी बिलों में बचत होने लगी है। न केवल चारों आयुध निर्माणी फैक्ट्रियांबल्कि इस्टेट के बंगले एवं क्वार्टर में होने वाली बिजली की खपत भी इसमें समाहित की गई है। इन दोनों सोलर प्लांट से हर साल करोड़ 60 लाख यूनिट से ज्यादा का बिजली उत्पादन किये जाने की अपेक्षा है। एक अनुमान के अनुसार इन दोनों प्लांट से 40 हजार टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को रोका जा सकेगा।                   

देश में अधिकांशलगभग 58 फीसदीबिजली का उत्पादन कोयले से होता है। भारत में बिजली की स्थापित क्षमतातीन लाख 73 हजार 436 मेगावाट हैजिसमें कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों का योगदान  दो लाख 21 हजार 803 मेगावाट है। इसमें से 30 हजार मेगावाट से अधिक क्षमता के संयंत्र 20 साल से ज्यादा पुरानेखर्चीले और प्रदूषणकारी हैं। औद्योगिक विकास के लिए कोयला और पेट्रोलियम जलाने से निकलने वाला कार्बन का धुआं पृथ्वी के जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारक है। 'ग्लोबल रिस्क इंडेक्स-2020' के अनुसार सन् 1998 से 2017 के बीच भारत में जलवायु परिवर्तन (सूखाअतिवृष्टिसमुद्री तूफान आदि) के कारण पांच लाख 99 हजार करोड़ रुपयों का आर्थिक नुकसान हुआ है। वहीं केवल सन् 2018 में जलवायु परिवर्तन से दो लाख 79 हजार करोड़ रुपयों का आर्थिक नुकसान हुआ और 2081 लोगों की मौतें हो गईं थीं।

 'राष्ट्रीय विद्युत नीतिके अनुसार अगले दशक में विद्युत की बढ़ती मांग को 2027 तक दो लाख 75 हजार मेगावाट नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा किया जा सकता हैइसलिए कोयले के नये संयंत्रों की जरूरत नहीं पड़ेगी। ऐसी परिस्थितियों में बिजली की मांग और अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने के लिए आवश्यक हो गया है कि नवीकरणीय ऊर्जा में निरंतर वृद्धि करते हुए विद्युत उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता कम की जाए। वैसे भीवैश्विक एनजीओ 'ग्रीन पीसके अनुसार कोयले से उत्पन्न बिजलीसौर और पवन ऊर्जा से 65 फीसदी महंगी है।

सम्पूर्ण भारतीय भूभाग पर 5000 लाख करोड़ किलोवाट प्रति वर्ग किलोमीटर के बराबर सौर ऊर्जा आती हैजो कि विश्व की सम्पूर्ण खपत से कई गुना है। देश में वर्ष में 250 से 300 दिन ऐसे होते हैं जब सूर्य की रोशनी पूरे दिन भर उपलब्ध रहती है। भारत का दुनिया भर में बिजली के उत्पादन और खपत के मामले में पांचवां स्थान है। भारत की लगभग 72 फीसदी आबादी गांवों में निवास करती है और इनमें से हजारों गांव ऐसे भी हैं जो आज भी बिजली जैसी मूलभूत सुविधा से वंचित है। यह देश को ऊर्जा की गुणवत्तासंरक्षण और ऊर्जा के नवीन स्रोतों पर ध्यान देने का उचित समय है। सौर ऊर्जाभारत में ऊर्जा की आवश्यकताओं की बढती मांग को पूरा करने का सबसे अच्छा तरीका है।राजकुमार सिन्हा

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